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संस्कृतका अध्ययन जातीय चेतनाके लिए आवश्यक
संस्कृत विश्वपरिषद् बनारसमें राष्ट्रपति डा. राजेन्द्रप्रसादका उद्घाटन भाषण “वाग्तवमें यह अत्यन्त ग्वेद और लज्जाकी बात जानीय चेतनाका पहचानना है कि इस विषयमें हमारे देशमें लेशमात्रभी मन्देह मरा यह विचार कंवल इसलिए ही नहीं है कि या शंका हो कि संग्कृतका अध्ययन श्रावश्यक भी है मुझं भारतकं अतोतसे प्रेम है और मैं उसकी ऐतिक्या ? विदेशी विद्वानों और शामको तकने मानिक- हासिक ज्ञाननिधि और जातीय अनुभूतिको मिट्रीकी प्टिसे संस्कृत अध्ययनके महत्वक बारेमें किमी ठीकरी या कूड़ा समझ कर नहीं फेंक देना चाहता। प्रकारकी शंका कभी नहीं को। हमारी संस्कृति, हमारा में मानता है और मेरा विश्वास है-कि कोईभी साहित्य, हमारी प्रादेशिक भाषाएँ, हमारी कला, विचारशील व्यक्ति इस बातसे इन्कार नहीं करेगा हमारे मत मतान्तर, हमारा इतिहाम अथ न हमारा कि-कोई जाति या राष्ट्र तब तक सफलतासे आगे सम्पूर्ण जीवन संस्कृत ज्ञानके बिना हमारे लिए अन- नहीं बढ़ सकता जब तक उसे अपनी ऐतिहासिक यूझी और अनजानी पहेलीद्दी बना रहेगा। यह हर्पकी चंतनाका अपनी मानसिक प्रवृत्तियों, शक्ति और बात है कि इस दिशामें पहला पग कृष्ण की लीला भूमि साधनोंका यथाविद ज्ञान न हो, क्योंकि ऐसी जातिके सौराष्ट्र में उठाया गया था और इसका अगला कदम व्यक्तियों में किसीभी कार्यक्रमकं लिए वह मनैक्य और भगवान शिवकी इस पुनीत और ऐतिहासिक नगरीम वह उत्साह नहीं हो सकता जो तब होता जब जातीय उठाया जायेगा। मुझे विश्वास है कि इन दो महा- चेतनाक मनोनुकूल और कोई कार्यक्रम हाथमें लिया विभूतियों की एतिहासिक छायामे आरम्भ होने वाला जाता है । जातीय चेतनासे सर्वथा अनभिज्ञ जनयह कार्य फलेगा और फूलेगा।" संस्कृत विश्व परिषद- नायक जन शक्तिको प्रगतिके लिए प्रयोगमें लानेमें के द्वितीय अधिवेशनका आज उद्घाटन करते हुए वैसे ही असमर्थ होगा जैसे कि जलशास्त्रसे सर्वथा राष्टपनि डा. राजेन्द्रप्रसादन उक्त विचार प्रकट किये। अपरिचित कोई व्यक्ति नदीको बांधकर उसे रचनात्मक
डा. राजेन्द्रप्रसाद ने कहा कि जिस प्रकार श्राज कार्योंके लिए प्रयोग करने में असमर्थ होता है। अनेक देशांक विद्यार्थी शिक्षाके लिए युरुप या अम. महात्माजी ने इस सत्यको खूब पहचाना था और रीका जाने है लगभग उसी प्रकार सास्त्राब्दियों तक उन्होंने भारतमें राजनैतिक सामाजिक और आर्थिक अन्य देशीसे विद्या जिज्ञासु संस्कृत और उसका वांग- क्रातिका जो कार्यक्रम बनाया था वह हमारी ।तिमय पढ़ने के लिए हमारे देशमें आत थे उन युगाम हासिक जातीय चेतनाके ठीक ठीक ज्ञान पर ही सभ्यताके रहस्योंको पानकी संस्कृत एक कुञ्जी मानी आश्रित था और इसी हेतु उस कार्यक्रमको यहांकी जाती थी। आजकल भी यरुप, जापान, और साधारण जनताका सहजमें ही उत्साहप्रद समर्थन अमरीकामं सस्कृतक अध्ययनक लिये विशेष प्रबन्ध और सहयोग मिल गया था। अतः मेरा यह आग्रह है और उसकी शिक्षा पर यहां पर्याप्त धन व्यय किया है कि भारतके मुन्दर भविष्यके लिए, उसकी आर्थिक जाता है। यह सब इमलिए हीन कि सस्कृत अध्ययनसे और सांस्कृतिक प्रगतिके लिए यह नितान्त आवश्यक मानव जातिके अतीतके बहुत धुधले पृष्ठोंको ठीक है कि हम अपनी जातीय चेतनाको पहचानने का यथो. ठीक समझने में भारी सहायता मिलती है, उसके चित प्रबन्ध कर। इस प्रबन्धका एक प्रमुख अंग
और दर्शनसे मनुष्यको गहरा आनन्द और सूक्ष्म संस्कृत अध्ययनके लिए प्रबन्ध करना क्योंकि विचार-शक्ति प्राप्त होती है । पर विदेशियांसे कही संस्कृतम ही तो अधिकतर यह सामग्री है जिसके अधिक हमें इसकी आवश्यकता महसूस करनी आधार पर हम अपने जातीय म्वरूपको यथाविद् पहचाहिये।
चान और नान सकते हैं।