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________________ ३२८] अनेकान्त [किरण . १४ मिद्धान्तार्थ सार-इम ग्रन्यका विषयमी सैद्धां- १७ दशलक्षण जयमाला-यह ग्रन्थ जैनियोंके तिक है और गाथा छंदमें रचा गया है। यह प्रन्य वाणि- धार्मिक पूजन-पाठमें प्रचलित है। इसमें उत्तम वमा, मार्दव, कवर श्रेष्ठी खेमसी साहूके निमित्त बनाया गया है। इस बार्जव, मन्य, शौच, संयम, तप, त्याग अकिंचन और ब्रह्ममृत्यम मापदर्शन, जोवस्वरूप, गुणस्थान, वत समिति, चर्य इन दश धर्मों का स्वरूप विशदरीतिसे बतलाया गया इंद्रिय निरोध प्रादि आवश्यक क्रियात्राका स्वरूप, अट्ठाईस है। जैनियोंके पयूषण पर्व में इसके पढ़े जानेका श्राम रिवाज मूल गुण, अष्टकम, द्वादाशांगत, लब्धि स्वरूप, द्वादश- है। यह ग्रन्थ हिंदी अनुवादके माथ प्रकाशित हो चुका अनुपेचा, दश खक्षणधर्म और ध्यानाके स्वरूपका कथन है। किंतु वृत्तमार नामके प्रथमें उक्त दशधर्मोके स्व किया गया है। परंतु उपलब्ध ग्रन्यका अंतिम भागवंडित रूपमा गाथा छदमें विराद रूपसे विचार किया किया है. लेखकने कुछ जगह छोड़कर लेखक पुष्पिकाकी प्रनिलिपि गया है। कर दी है। प्रन्यके शुरूमें कविने लिखा है कि यदि मैं उक १८ जबंधर चरित-इम ग्रन्थ में दर्शन विशुद्धयादि सभी विषयोंके निरूपणमें स्वलित होजाऊँ तो छल ग्रहण षोडश कारण भावनायोंके फलका वर्णन किया गया है और नहीं करना चाहिये। उसके फल प्राप्त करने वाले जीमंधर या जीवंधर तीर्थंकरकी १५ मम्यक्त्व कौमुदी-इसमें सम्यक्त्वकी उत्पादक कथा दी गई है। यह जीमंधर स्वामी पूर्व विदेहक्षेत्रके कथायोंका बड़ाही रोचक वर्णन दिया हुआ है, यह ग्रन्थभी अमरावती देश स्थित गंधर्व राउ (राज) नगरके राजा रबधूने राजा कीर्तिसिंहके राज्य कालमें रचा है इसकी प्रादि मीमंधर और उनकी पट्ट महिषी महादेवीके पुत्र थे। इन्होंने अंत प्रशस्तिमे मालूम होता है कि यह ग्रन्थ गोपाचलके दर्शनविशुद्धयादि पांडश भावनाका भक्तिभावसे चितन वामी गोलाराड़ीय जानिके भूषण मेउमाकी प्रेरणा किया था जिसके फल स्नम्प वे धर्मतीर्थक प्रवर्तक हुए । निर्मिन हुआ है, यह ग्रन्थ नागौरके ज्ञानभंडार में मौजूद इस ग्रन्थमें तेरह संधियां या परिच्छेद हैं। प्रन्थका कथाभाग है, जब मैं वहांके भंडार खुलनेके अवसर पर नागौर गया सुन्दर है। परंतु यह प्र-थ प्रति अत्यंत अशुद्ध रूपमें लिग्वी था तब वहां छोटे , पत्रात्मक इस प्र-थकी एक प्रति गई है. उसमे यह सहजही ज्ञात होजाता है कि लेखक देखी थी और उसकी प्रादि अंत प्रशस्तिभी नोट करनी पुरानी लिपीका अभ्यासी नहीं था और प्रति लिखवाकर चाही, परंतु वहांके भट्टारक और प्रधान श्रीमानोंके सर्वथा पुनः जांच भी नहीं की गई है। रोक देनेके कारण मैं ऐमा न कर सका, जिसका मुझे भारी म्वेद है। यदि इम ग्रन्थका उद्धार न किया गया तो वह १६ करकण्ड चरित-इम गन्थम राजा करकण्डुकं शीघ्र ही समाप्त हो जायगा । आशा है वहांके भहारक चरितका चित्रण किया गया है । कथानक सुदर और ऐतिदेवेन्द्र की तिजी उमे शीघ्र ही प्रकाश में लानेका कष्ट करेंगे, हामिक दृष्टिमे भी महत्वपूर्ण है। उममें तेरापुरकी गुफाओं च कि अब वहां प्रन्य-मूचीका कार्यभी शुरू होगया है। का भी वर्णन दिया हुआ है। ग्रन्थ की यह प्रति श्रादि अंन अतः इस ग्रन्थका प्रकाशनमी होजाना चाहिये। भागस रहित है। और देहलीके मंदिर धर्मपुराक शास्त्र भण्डार की है। पूर्ण प्रतिके उपलब्ध न होनेम उसके निर्मा१६ पांडश कारण जयमाला - इसमें दर्शन विशुद्धि, ण श्रादिके सम्बंधमें विचार करना संभव नहीं है। विनयसम्पचना प्रादि मोलह भावनाओंका विवेचन किया २. आत्म-संबोध क व्य-यह घोटामा काव्य ग्रन्थ गया है, जो तीर्थंकर प्रकृतिके बंधका कारण है. इसमें प्रथम है जिम कविने अात्मसम्बोधनार्थ बनाया गया है। प्रस्तुत भावना दर्शनविशुद्धि सम्यक्वके २५ दोषोंसे रहित तीर्थकर प्रकृतिको बंधक है, शेष १५ भावनाएँ न भी हो, तांभी ग्रन्थ प्रात्महितको दृष्टिको सामने लक्षित करके हिमादि पंच तीर्थकर प्रकृतिका बंध हो सकता है। किंतु दर्शन विशुद्धि के पापों और ससव्यासनादिके परित्यागकी अच्छी शिक्षा दी अमाव में वे कार्य कारी नहीं है। अतः दर्शन विशुद्धिको गई है। और पात्माको अपने कर्तव्यकी श्रोर लक्ष्य रग्वने का प्रयत्न भी किया गया है। प्राप्त करना श्रेयस्कर है।
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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