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अनेकान्त
[किरण १२
प्रकारसे ठीक ही है; परन्तु शरीर धर्मका सर्वथा अथवा है इसलिये यथाशक्ति समाधिपूर्वक मरणका प्रयत्न अनन्यतम साधन नहीं है, वह साधक होनेके स्थानपर करना चाहिये। कभी कभी बाधक भी हो जाता है। जब शरीरको कायम व्याख्या-इस कारिकाका पूर्वाध और उसमें भी रखने अथवा उसके अस्तित्वसे धर्मके पालनमें बाधाका अन्तक्रियाधिकरणं तपःफलं' यह सूत्रवाक्य बड़ा ही पपना अनिवार्य हो जाता है तब धर्मकी रक्षार्थ उसका महत्वपूर्ण है। इसमें बतलाया है कि 'तपका फल अन्तत्याग ही श्रेयस्कर होता है। यही पहली दृष्टि है जिसका मिना
खात यहाँ प्रधानतासे उल्लेख है। विदेशियों तथा विधर्मियोंके
अन्तक्रिया यदि सुघटित होती है-ठीक समाधिपूर्वक माक्रमवादि-द्वारा ऐसे कितने ही अवसर पाते हैं जब
मरण बनता है-तो.किये हुये तपका फल भी सुघटित मनुष्य शरीर रहते धर्मको छोदनेके लिये मजबूर किया होना तय मजबूर किया होता है, अन्यथा उसका फल नहीं भी मिलता । अन्तक्रिया
यशात्र जाताअथवा मजबूर होता है। अतः धर्मप्राण मानव से पका वह तप कौनसा है जिसके फलकी बातको यहाँ एसे अनिवार्य उपसगादिका समय रहत विचारकर धम उठाया गया है। वह तप अणुव्रत-गुणवत और शिक्षाभएतासे पहले ही बड़ी खुशी एवं सावधानीसे उस धर्मको व्रतात्मक चारित्र है जिसके अनुष्ठानका विधान प्रन्थमें इससे मालिये देहका त्याग करते हैं जो देहसे अधिक प्रिय पहले किया गया है। सम्यक चारित्रके अनुष्ठानमें जो उद्योग होता है।
किया जाता है और उपयोग लगाया जाता है वह सब • दूसरी रष्टिके अनुसार जब मानव रोगादिकी असा 'तप' कहलाता है। इस तपका परलोक सम्बन्धी यथेष्ठ ध्यावस्था होते हुए या अन्य प्रकारसे मरणका होना फल प्रायः तभी प्राप्त होता है जब समाधिपूर्वक मरण अनिवार्य समझ लेता है तब वह शीघ्रताके साथ धर्मकी होता है। क्योंकि मरणके समय यदि धर्मानुष्ठानरूप विशेष साधना-आराधनाके लिये प्रयत्नशील होता है, किये परिणाम न होकर धर्मकी विराधना हो जाती है तो उससे हुए पापोंकी आलोचना करता हुमा महामतों तकको दुर्गतिमें जाना पड़ता है और वहाँ उन पूर्वोपार्जित शुभधारण करता है और अपने पास कुछ ऐसे साधर्मीजनोंकी कर्मोक फलको भोगनेका कोई अवसर ही नहीं मिलतायोजना करता है जो उसे सदा धर्ममें सावधान रक्खें, निमित्तके अभावमें वे शुभकर्म बिना रस दिये ही खिर धर्मोपदेश सुनायें और दुःख तथा कष्टके अवसरोंपर कायर जाते हैं। एक वार दुर्गतिमें पड़ जानेसे अक्सर दुर्गतिन होने देवें । वह मृत्युकी प्रतीक्षामें बैठता है, उसे की परम्परा बढ़ जाती है और पुनः धर्मको प्राप्त करना बुलानेकी शीघ्रता नहीं करता और न यही चाहता है कि बड़ा ही कठिन हो जाता है। इसीसे शिवार्य जी अपनी उसका जीवन कुछ और बढ़ जाय। ये दोनों बातें उसके भगवती आराधनामें लिखते हैं कि 'दर्शनशानचारित्ररूप लिये दोषरूप होती हैं जैसाकि आगे इस व्रतके अतिचारोंकी धर्म में चिरकाल तक निरतिचार प्रवृत्ति करनेवाला मनुष्य कारिकामें प्रयुक्त हुए 'जीवित-मरणाऽऽशंसे' पदसे जाना भी यदि मरण समय उस धर्मकी विराधना कर बैठता है
तो वह अनन्त संसारी तक हो जाता है:भागे इस सहलेखमा अथवा समाधिपूर्वक मरणकी सचिरमवि गिरदिचार विहरिता णाणदसणचरित। महत्ता एवं आवश्यकता को बतलाते हुए स्वामी समन्तभद्र मरणे विराधयिता अनंतसंसारिओ दिह्रो ।। १५ ।। लिखते हैं :
इन सब बातोंसे स्पष्ट है कि अन्तसमयमें धर्मभन्त-क्रियाऽधिकरणं तपःफलं सकलदर्शिनः स्तुवते । परिणामोंकी सावधानी न रखनेस यदि मरण बिगड़ जाता तस्माद्याद्विभव समाधिमरणे प्रयतितव्यम् ॥१२३॥ है तो प्रायः सारे ही किये कराये पर पानी फिर जाता है।
(कि) तपका-अणुव्रत-गुणवत-शिवावतादिरूप जैसा कि भगवती भाराधनाकी निम्न गाथासे तपश्चर्याका-फल अन्तक्रियाके-सल्लेखना, सन्यास प्रकट है:अथवा समाधिपूर्वक मरणके-आधार पर अवलम्बित- चरणम्मि तम्मि जो उज्जमो य माउंजणा य जो होई। समाश्रित-है ऐसा सर्वदर्शी सर्वज्ञदेव ख्यापित करते सोचेव जिणेहिं तवो भणियो असई चरंतस्स १०॥