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समन्तभद्र-वचनामृत
(सल्लेखना) उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे। माम विकास में सहायक पहंदादि पंचपरमेष्ठिका ध्यान धमाय वनु-विमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः १३२२० करते हुए बड़े यल के साथ होता है, जैसाकि कारिका 'प्रतीकार (उपाय-उपचार)-रहित असाध्याशाको
मं०१२% से जाना जाता है-याही विष खाकर, कृपादिमें प्राप्त हुए उपसर्ग, दुर्भिक्ष. जरा (बडापावागत दबकर, गोली मारकर या अन्य अस्त्र-शस्त्रादिकसे पापात हालतमें और (कार से) ऐसे ही दूसरे किसी कारणके
पहुँचाकर सम्पन्न नहीं किया जाता। उपस्थित होनेपर जो धर्मार्थ-अपने रत्नत्रयरूा धर्मको
'सन्' और 'लेखना' इन दो शब्दोंम्पे 'सबलेखना' पर रजा-पालनाके लिये-देहका सत्याग है-विधिपूर्वक
बना है। 'सत्' प्रशंसनीयको कहते हैं और 'लेखना' कृषीबोबना है-उसे आर्य-गणपरदेव-'सल्लेखना
करण क्रियाका नाम है। सल्लेखनाके द्वारा जिन्हें कश 'समाधिमरण' कहते है।
अथवा क्षीण किया जाता है वे है काय और कषाय । व्याख्या-जिस देहत्याग ( तनुविमोचन ) को यहाँ
इसीसे सरजेवनाके कायसल्लेखना और कपायसवनेखना सल्लेखना कहा गया है उसोको अगलीकारिकामै 'अस्त
ऐसे दो भेद भागममें कहे जाते हैं। यहाँ अन्तः शुद्धिके क्रिया' तथा 'समाधिमरण' के नामसे भी उल्लेखित किया
रूपमें कषाय-सल्लेखनाको साथमें लिये हुए मुख्यतासे है। मरणका 'समाधि' विशेषण होनेसे वह उस मरणसे
काय-सल्लेखनाका निर्देश है, जैसाकि यहाँ तनुविभाचन' भिक हो जाता है जो साधारण तौरपर श्रायुका अन्त
पदसे और भागे तनु त्यजेत्' (१२८)जैसे पदों के प्रयोगके मानेपर प्रायः सभी संसारी जीवोंके साथ घटित होता है
साथ माहारको क्रमशः घटानेके उल्लेखसे जाना जाता है। अथवा प्रायुका अन्त न आनेपर भी क्रोधादिकके आवेशमें
इस कारिकामें 'निःप्रतीकारे' और धर्माय' ये दो वा मोहसे पागल होकर 'अपघात' (खुदकुशी, Suicide)
पद खासतौरसे ध्यान देने योग्य है। निःप्रतीकार विशेष के रूपमें प्रस्तुत किया जाता है, और जिसमें प्रास्माकी उपसर्ग, दुभिष, जरा, राग
उपसर्ग, दुर्भिस, जरा, रोग इन चारोंके साथ-तथा कोई सावधानी एवं स्वरूप-स्थिति नहीं रहती। समाधि
चकारसे जिस दूसरे सटश कारणका ग्रहण किया जाय पूर्वक मरणमें पारमाकी प्रायः पूरी सावधानी रहती है और उसके भी साथ-सम्बद्ध है और इस पातको सूचित करता मोह तथा क्रोधादिकषायोंके भावेशवश कुछ नहीं किया है कि अ
है कि अपने ऊपर पाए हुए चेतन-मचेतन-कृत उपसर्ग जाता, प्रत्युत उन्हें जीता जाता है तथा चित्तकी शुद्धिको
नया दुर्भिक्षादिकको दूर करनेका यदि कोई उपाय नहीं स्थिर किया जाता है और इसलिये सस्लेखना कोई अपराध,
बन सकता तो उसके निमित्तको पाकर एक मनुष्य सक्नेअपघात था खुदकुशी (Suicide) नहीं है। उसका
खनाका अधिकारी तथा पात्र है, अन्यथा-उपायके संभव 'अन्तकिया' नाम इस बातको सूचित करता है कि वह
और सशक्य होनेपर • वह उसका अधिकारी नथा पात्र जीवनके प्रायः अन्तिम भागमें की जाने वाली समीचीन नहीं है। क्रिया है और सम्यक् चारित्रके अन्त में उसका निर्देश होनेसे 'धर्माय' पर दो दृष्टियोंको लिये हुए है--एक अपने इस बातकी भी सूचना मिलती है कि वह सम्यक चारित्रकी स्वीकृत समीचीन धर्मकी रस-पालनाकी और दूसरी चूखिका-चोटीके रूपमें स्थित एक धार्मिक अनुष्ठान-है। प्रात्मीय धर्मको यथाशक्य साधना पाराधनाकी। धर्मको इसीसे इस किया-द्वारा जो देहका त्याग होता है वह रसादिके अर्थ शरीरके त्यागकी बात सामान्यरूपसे कुछ
अटपटी-सी जान पड़ती है। क्योंकि भामतौरपर 'धर्मार्थभयो पिचापि एवारिसम्मि भागाकारणे जादे। काममोक्षायां शरीरं साधनं मतम्' इस वाक्यके अनुसार
-भगवती चाराधना शरीर धर्मका साधन माना जाता है, और यह पास एक