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किरण १२]
समन्तभद्र वचनामृत
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इसीसे अन्तसमयमें परिणामोंको सँभालनेके लिये याचना करता हुआ उसे प्राप्त करता है। साथ ही, स्वयं बहुत बड़ी सावधानी रखने की जरूरत है और इसीसे कर-कराये तथा अपनी अनुमोदना में पाये सारे पापोंकी प्रस्तुत कारिकामें इस बात पर जोर दिया गया है कि बिना किसी बल-बिद्रके पालोचना करके पूर्ण महाबतोंको जितनी भी अपनी शक्ति हो उसके अनुसार समाधिपूर्वक मरणपर्यन्तके लिये धारण करता है और इस तरह मरणका पूरा प्रयत्न करना चाहिये।
समाधिमरणकी पूरी तय्यारी करता है। इन्हीं सब बातोंको लेकर जैन समाजमें समाधिपूर्वक शोकं भयमवसाद क्लेदं कालुष्यमरतिमपि हित्वा । मरणको विशेष महत्व प्राप्त है। उसकी नित्यकी पूजाओं- सत्वोत्साहमुदीये च मनःप्रसार्थ श्रुतैरमृतैः॥१२६ ।। प्रार्थनाओं आदिमें 'दुक्खखो कम्मखो समाहिमरण
"महावतोंके धारण करनेके बाद। सस्नेखनाके च बोहिलाहो वि' जैसे वाक्यों द्वारा समाधि मरणकी बराबर
- अनुष्ठाताको चहिये कि वह शोक, भय, विषाद, भावना की जाती है और भगवती पाराधना जैसे कितनेही
क्लेश, कलुषता और परतिको भी छोड़ कर तथा बल ग्रन्थ उस विषयकी महती चर्चाओं एवं मरण-समय
और उत्साहको उदयमें लाकर बढ़ाकर-अमृतोपम सम्बन्धी सावधानताकी प्रक्रियाओंसे भरे पड़े हैं। लोकमें
आगम-वाक्योंके (स्मरण-श्रवण-चिन्तनादि-)द्वारा चित्तभी अन्त समा सो समा' 'अन्त मता सो मता' और
को (बराबर) प्रसन्न रक्खे-उसमें लेशमात्र भी अप्रस'अन्त भला सो भला' जैसे वाक्योंके द्वारा इसी अन्तक्रिया
बता न पाने दे। के महत्वको ख्यापित किया जाता है। यह क्रिया गृहस्थ तथा मुनि दोनोंके ही लिये विहित है।
व्याख्या-यहाँ सल्लखना प्रतीके उस कर्तव्यका
निर्देश है जिसे महावतोंके धारण करनेके बाद उसे पूर्ण स्नेहं वैरं सगं परिग्रह चाऽपहाय शुद्धमना ।
प्रयत्वसे पूरा करना चाहिये और वह है चित्त को प्रसन्न स्वजनं परिजनमपि च क्षान्त्वा क्षमयेत्प्रियैर्वचनैः।१२४॥
रखना। चित्तको प्रसन्न रक्खे विना सल्लखनाप्रतका ठीक भालोच्य सर्वमेनः कृति-कारितमनुमतं च नियाजम् ।
अनुष्ठान बनता ही नहीं। चित्तको प्रसन्न रखनेके लिये आरोपयेन्महाव्रतमामरणस्थायि निःशेषम् ॥ १२५ ॥
प्रथम तो शोक, भय, विषाद, क्लेश, कलुषता और परति__(समाधि मरणका प्रयत्न करने वाले सल्लखना- के प्रसंगांको अपने से दूर रम्बना होगा-उन्हें चित्तमें प्रतीको चाहिये कि वह) स्नेह (प्रीति, रागभाव) वैर भी स्थान देना नहीं होगा। दूसरे सत्तामें स्थित अपने (दुषभाव ), संग ( सम्बन्ध, रिश्ता नाता) और परि- यल तथा उत्साहको उदयमें लाकर अपने भीतर बल मह (धनधान्यदि बाब वस्तुओंमें ममस्वपरिणाम) तथा उत्साहका यथेष्ठ संचार करना होगा। साथ ही ऐसा को छोड़ कर शुद्ध चित्त हुआ प्रियवचनोंसे स्वजनों प्रसंग जोड़ना होगा, जिससे अमृतोपम शास्त्र-वचनोंका तथा परिजनोंको (स्वयं ) क्षमाकरके उनसे अपनेको श्रवण स्मरण तथा चिंतनादिक बराबर होता रहे; क्षमा कराये।और साथ ही स्वयं किये-कराये तथा क्योंकि वे ही चित्तको प्रमा रम्बने में परम सहायक अपनी अनुमावनाको प्राप्त हुए संपूर्ण पापकर्मको होते हैं। निच्छल-निर्दोष आलोचना करके पूर्ण महाव्रतको
आहार परिहाप्य क्रमशः स्निग्धं विषयेत्यानम्। पाँचों महावतोंको-मरण पर्यन्तके लिये धारण करे।' स्निग्धं चहापयित्वा खरपानं पूरयेत क्रमशः॥१२७..
व्याख्या-इन दो कारिकाओं तथा अगली दो कारि- खरपान-हापनामपि कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या । कामोंमें भी समाधिमरणके लिये उद्यमी सल्लखनानुष्ठाता- पंचनमस्कारमनास्तनु त्यजेत्सर्वयलेन ॥ १२८॥ के त्यागक्रम और चर्चाक्रमका निर्देश किया गया है। साथ ही समाधिमरणका इच्छुक श्रावक) क्रमशः यहाँ वह राग-पादिके त्यागरूपमें कषायसल्ल खना अहारको-कवलाहाररूपभोजनको-घटाकर (दुग्धादिकरता हुमा अपने मनको शुद्ध करके प्रिय वचनों द्वारा रूप) स्निग्धपानको बढ़ावे, फिर स्निग्धपानको भी स्वजन-परिजनोंको उनके अपराधोंके लिये समा प्रदान घटाकर क्रमशः खरपानको शुद्ध कांजी तथा उष्ण करता है और अपने अपराधोंके लिये उनसे जमा की जलादिको-बढ़ाये। और इसके बाद स्वरपानको भी