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________________ ४००] अनेकान्त किरण १२] घटाकर तथा शक्ति के अनुसार उपवास करके पंच- निःश्रेयसमभ्युदयं निस्तीरं दुस्तर सुखाऽनिधिम् । नमस्कारमें - अहंदादि पंचपरमेष्ठिके ध्यानमें-मनको निष्पिति पीतधर्मा सबै? खैरनानीढः ॥ १३०॥ लगाता हुआ पूर्ण यलसे-व्रतोंके परिपालनमें पूरी जिसने धर्म (अमृत) का पान किया है सम्बक सावधानी एवं तत्परताके साथ-शरीरको त्यागे।' दर्शन, सम्यगशान, सम्यचरित्रका सल्लेखनासहित भने व्याख्या-कषायसा लेखनाके अनन्तर काय-सब्जे प्रकार अनुष्ठान किया है-वह सब दुःखोंसे रहित होता सनाकी विधि-व्यवस्था करते हुए यहाँ जो माहारादिको हुआ उस निःश्रेयसरूप सुख-समुद्रका अनुभव करता क्रमशः घटाने तथा स्निग्ध पानादिको क्रमशः बढ़ानेकी बात है जिसका तीर नहीं-तट नहीं, पार नहीं और इसलिये कही गई है वह बड़े ही अनुभूत प्रयोगको लिये हुए है। जो अनन्त है, (अनन्तकाल तक रहनेवाला है) तथा उससे कायके कृश होते हुए भी परिणामोंकी सावधानी उस अभ्युदयरूप सुखसमुद्रका भी अनुभव करता है बनी रहती है। और देहका समाधि-पूर्वक त्याग सुघटित जो दुस्तर है-जिसको तिरना, उल्लंघन करना कठिन है, न हो जाता है। यहाँ पंचनमस्कारके स्मरणरूपमें पंचपर और इसलिये जो प्राप्त करके सहजमें ही छोड़ा नहीं जा मेष्ठिका-अहम्तों, सिद्धों, प्राचार्यो, उपाध्यायों और सकता। साधु-सम्तोंका-यान करते हुए जो पूर्ण सावधानीक व्याख्या-यहाँ सल्लेखना - सहित धर्मानुष्ठानके साथ देहके त्यागको बात कही गई है वह बड़े महत्वकी है और इस प्रक्रियाके भवन पर कलश चढ़ानेका काम फलका निर्देश करते हुए उसे द्विविधरूपमें निर्दिष्ट किया करती है। प्रत उपवासकी पात शक्तिके ऊपर निर्भर है है-एक फल निःश्रेयसके रूप में है, दूसरा अभ्युदयके वदिशकिन हो तो उसे न करनेसे कोई हानि नहीं। रूपमें । दोनोंको यद्यपि सुख-समुद्र बतलाया है परन्तु दोनों सुख-समुद्रामें अन्तर है और वह अन्तर अगली कारिजीवित-मरणाऽऽशंसे भय-मित्रस्मृति-निदान-नामान। कामोंमें दिये हुए उनके स्वरूपादिकसे भले प्रकार जाना सल्लेखनाऽतिचा:पंच जिनेन्द्र समादिष्टाः ॥१०॥ तथा अनुभवमें लाया जा सकता है। अगली कारिकामें जीनेकी अभिलाषा, (जब्दी मरनेको 'प्रभिलापा, निःश्रेयसको निर्वाण' तथा 'शुद्धसुख' के रूपमें उल्लेखित (शोक-परलोक-सम्बन्धी, भय, मित्रोंकी (उपलक्षणसे किया है, साथही 'नित्य' भी लिखा है और इससे यह स्त्री पुत्रादिकी भी । स्मृति (याद) और भावी भोगा स्पष्ट है EिER दिककी अभिलाषा रूप निदान, ये सल्लेखना व्रतक न होकर सांसारिक है-ऊंचेसे ऊँचे दर्जेका लौकिक सुख पाँच अतीचार (दोष) जिनेन्द्रोंने-जैन तीर्थंकरोने- उसमें शामिल है परन्तु निराकुलता-लक्षण सुखकी (भागममें) बतलाये हैं, रष्टिसे वह असली ब्रालिस स्वाश्रित एवं शुद्ध सुख म ___ व्याख्या जो लोग सल्ले खनायतको अंगीकार कर होकर नकली मिलावटी पराश्रित एवं अशुद्ध सुखके रूपमें पीछे अपनी कुछ इच्छानोंकी पूर्तिके लिये अधिक स्थित है और सदा स्थिर भी रहने वाला नहीं है, जबकि जीना चाहते हैं, या उपसर्गादिकी वेदनाओंको निःश्रेयस सुख सदा ज्योंका त्यों स्थिर रहने वाला हैसमभावस सहने में कायर होकर जल्दी मरना चाहते हैं उसमें विकारके हेतुका मूलतः विनाश हो जानेके कारण बेअपने सलेखनावतको दोष लगाते हैं। इसी तरह वे कभी किसी विकारकी संभावना तक नहीं है। इसीसे भी अपने उस प्रतको दूषित करते हैं जो किसी प्रकारके - निःश्रेयस सखको प्रधानता प्राप्त है और उसका कारिकामें भय तया मित्रादिका स्मरणकर अपने चित्तमें रंग लाते पहले निर्देश किया गया है। अभ्युदय सखका जो स्वरूप है अथवा अपने इस व्रतादिके फलरूप में कोई प्रकारका १३५ वीं कारिकामें दिया है उससे वह यथेष्ट पूजा, धन, निदान बांधते है। अतः सल्लेखनाके उन फलोंको प्राप्त प्राज्ञा बल, परिजन, काम और भोगके प्रभावमें होने करनेके लिये जिनका मागे निर्देश किया गया है इन पांचों वाले दुःखोंके प्रभावका सूचक है, उन्हीं सब दुखोंका दोषोमसे किसी भी दोषको अपने पास फटकने देना नहीं प्रभाव उसके स्वामीके लिये 'सबदुःखैरनालीरा' इस चाहिये। वाक्पके द्वारा विहित एवं विवक्षित है। वह अगली
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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