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अनेकान्त
[वर्ष ११
मूलसे लेकर स्कंध पर्यन्त बेढकर स्थित हो गया जिसपर आप रहते थे, सिंहकी तरह निर्भय होकर जंगल-पहाड़ोमें विचरते थे चढे हुए थे। उसके विकराल रूपको देखकर दूसरे राजकुमार और दिन-रात तपश्चरण ही तपश्चरण किया करते थे। भयविह्वल हो गये और उसी दशामें वृक्षों परसे गिरकर विशेष सिद्धि और विशेष लोकसेवाके लिये विशेष ही अथवा कूदकर अपने-अपने घरको भाग गये । परन्तु आपके तपश्चरणकी जरूरत होती है-तपश्चरण ही रोम-रोममे रमे हृदयमें जरा भी भयका संचार नही हुआ–आप बिल्कुल हुए आन्तरिक मलको छाँटकर आत्माको शुद्ध,साफ,समर्थ और निर्भयचित्त होकर उस काले नागसे ही क्रीडा करने लगे और कार्यक्षम बनाता है। इसीलिये महावीरको बारह वर्ष तक घोर आपने उसपर सवार होकर अपने बल तथा पराक्रमसे उसे खूब तपश्चरण करना पड़ा-खूब कडा योग साधना पडा-तब कही ही घुमाया, फिराया तथा निर्मद कर दिया। उसी वक्तसे आप जाकर आपकी शक्तियोका पूर्ण विकास हुआ । इस दुर्द्धर लोकमें 'महावीर' नामसे प्रसिद्ध हुए। इन दोनो 'घटनाओसे तपश्चरणकी कुछ घटनाओको मालूम करके रोंगटे खड़े हो यह स्पष्ट जाना जाता है कि महावीरमें बाल्यकालसे ही बुद्धि जाते है । पर साथ ही आपके असाधारण धैर्य, अटल निश्चय, और शक्तिका असाधारण विकास हो रहा था और इस प्रकार- सुदृढ आत्मविश्वास,अनुपम साहस और लोकोत्तर क्षमाशीलकी घटनाएं उनके भावी असाधारण व्यक्तित्वको सूचित करती ताको देखकर हृदय भक्तिसे भर आता है और खुद-बखुद थी। सो ठीक ही है
(स्वयमेव) स्तुति करनेमे प्रवृत्त हो जाता है । अस्तु; मन'"होनहार बिरवानके होत चीकने पात।"
पर्ययज्ञानकी प्राप्ति तो आपको दीक्षा लेनेके बाद ही होगई थी प्रायः तीस वर्षको अवस्था हो जाने पर महावीर संसार
परन्तु केवल ज्ञान-ज्योतिका उदय बारह वर्षके उग्र तपश्चरणदेहभोगोंसे पूर्णतया विरक्त हो गये, उन्हे अपने आत्मोत्कर्षको के बाद वैशाख मदि १०मीको तीर साधने और अपना अन्तिम ध्येय प्राप्त करनेकी ही नहीं किन्तु हआ जबकि आप ज़म्भका ग्रामके निकट ऋजुकूला नदीके संसारके जीवोंको सन्मार्गमे लगाने अथवा उनकी सच्ची सेवा किनारे, शालवृक्षके नीचे एक शिलापर, षष्ठोपवाससे युक्त बजानेकी एक विशेष लगन लगी-दीन-दुखियोकी पुकार हए, क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ थे--आपने शुक्लध्यान लगा रक्खा उनके हृदयमें घर कर गई-और इसलिए उन्होने, अब और था और चन्द्रमा हस्तोनरनक्षत्रके मध्यमे स्थित था। जैमा अधिक समय तक गृहवासको उचित न समझकर, जगलका कि श्रीपूज्यपादाचार्यके निम्न वाक्योमे प्रकट है - रास्ता लिया, संपूर्ण राज्यवैभवको ठुकरा दिया और इन्द्रिय
ग्राम-पुर-खेट-कर्वट-मटम्ब-पोषाकराप्रविजहार । सुखोसे मुख मोड़कर मंगसिरवदि १० मीको 'ज्ञातखंड'
उग्रस्तगोविधान विशवर्षाप्यमरपूज्य. ॥१०॥ नामक वनमे जिनदीक्षा धारण करली । दीक्षाके समय आपने
ऋजुकूलायास्तोरे शालनुमसंश्रिते शिलापट्टे। संपूर्ण परिग्रहका त्याग करके आकिंचन्य (अपरिग्रह) व्रत
अपराह्न षष्ठेनास्थितस्य खलु जम्मकामामे ॥११॥ ग्रहण किया, अपने शरीरपरसे वस्त्राभूषणोको उतार कर
वैशाखसितदशम्यां हस्तोत्तरमध्यमाश्रिते चंद्र फेंक दिया और केशोको क्लेशसमान समझते हुए उनका भी
क्षपकश्रेण्यारूढस्योत्पन्नं केवलज्ञानम् ॥१२॥ लौच कर डाला । अब आप देहसे भी निर्ममत्व होकर नग्न
--निर्वाणभक्ति ५. इनमेसे पहली घटनाका उल्लेख प्रायः दिगम्बर ७. केवलज्ञानोत्पत्तिके समय और क्षेत्रादिका प्रायः ग्रन्थोमें और दूसरीका दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों __ यह सब वर्णन 'धवल' और 'जयववल' नामके दोनों ही सम्प्रदायोके ग्रन्थोमें बहुलतासे पाया जाता है। सिद्धान्तग्रन्थोमें उद्धृत तीन प्राचीन गाथाओमें भी
६. कुछ श्वेताम्बरीय ग्रन्थोमें इतना विशेष कथन पाया पाया जाता है, जो इस प्रकार है :-- जाता है और वह सम्भवतः साम्प्रदायिक जान पड़ता है कि, • गमइय छदुमत्थत्तं वारसवासाणि पचमासे य । वस्त्राभूषगोको उतार डालनेके बाद इन्द्रने 'देवदूष्य' नामका पग्णारसाणि दिगाणि य तिरयणसुद्धो महावीरो॥१॥ एक बहुमूल्य वस्त्र भगवान्के कन्धे पर डाल दिया था, जो उजुकल गदीतीरे जभियगामे वहिं सिलावट्टे । १३ महीने तक पड़ा रहा । बादको महावीरने उसे भी त्याग छुटणादावेतों अवरण्हे पायछायाए ॥ २॥ दिया और वे पूर्णरूपसे नग्नदिगम्बर अथवा जिकल्पी वइसाहजोण्हपक्खे दसमीए खवगसेढि मारुतो। ही रहे।
हंतूण घाइकम्मं केवलणाणं समावण्णो॥ ३ ॥