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किरण २ ]
भगवान महावीर
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इस तरह घोर तपश्चरण तथा ध्यानाग्नि-द्वारा, ज्ञाना- करता था, गौ और सिंही मिलकर एक ही नांदमें जल पीती थी वरणीय दर्शनावरणीय मोहनीय और अन्तराय नामके और मृग-शावक खुशीसे सिंह-शावकके साथ खेलता था। यह घातिकर्म-मलको दग्ध करके, महावीर भगवानने जब अपने सब महावीरके योग-बलका माहात्म्य था। उनके आत्मामे आत्मामें ज्ञान, दर्शन, मुख और वीर्य नामके स्वाभाविक गुणों- अहिसाकी पूर्ण प्रतिष्ठा हो चुकी थी, इसलिए उनके सनिकट का पूरा विकास अथवा उनका पूर्ण रूपसे आविर्भाव कर लिया अथवा उनकी उपस्थितिमें किमीका वैर स्थिर नहीं रह सकता और आप अनुपम शुद्धि, शक्ति तथा शान्तिको पराकाष्ठाको था। पतजलि ऋषिने भी, अपने योगदर्शनमें, योगके इस पहुँच गये, अथवा यो कहिये कि, आपको स्वात्मोपलब्धिरूपी महात्म्यको स्वीकार किया है। जैसा कि उसके निम्न सूत्रसे 'सिद्धि' की प्राप्ति हो गई, तब आपने सब प्रकारसे समर्थ होकर प्रकट है :ब्रह्मपथका नेतृत्व ग्रहण किया और ससारी जीवोको सन्मार्गका अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सनिधी वैरत्यागः ॥३५॥ उपदेश देनेके लिए--उन्हे उनकी भूमें सुझाने, बन्धनमुक्त जैनशास्त्रोमें महावीरके विहार-समयादिककी कितनी . करने, ऊपर उठाने और उनके दुख मिटाने के लिए अपना ही विभूतियोंका--अतिशयोका-वर्णन किया गया है विहार प्रारम्भ किया। अथवा यों कहिये कि लोकहित-साधनका परन्तु उन्हे यहाँ पर छोड़ा जाता है। क्योकि स्वामी जो असाधारण विचार आपका वर्षोसे चल रहा था समन्तभरने लिखा है :और जिसका गहग सस्कार जन्मजन्मातरोसे आपके आत्मामें देवागम-नभोयान-चामरादि-विभूतय । पडा हुआ था वह अब सम्पूर्ण रुकावटोके दूर हो जाने पर स्वत मायाविष्वपि वृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान् ॥१॥ कार्यमे परिणत हो गया।
--आप्तमीमांसा विहार करते हुए आप जिस स्थान पर पहुँचते और वहाँ अर्थात्-देवोका आगमन, आकाशमै गमन और चामआपके उपदेशके लिए जो महतीसभा जुडती थी और जिसे जन- रादिक (दिव्य चमर, छत्र, सिंहासन, भामडलादिक) साहित्यमें 'समवसरण' नाममे उल्लेग्वित किया गया है उसकी विभूतियोका अस्तित्व तो मायावियोमे-इन्द्रजालियोमेखास विशेषता यह होती थी कि उसका द्वार सबके लिए मुक्त भी पाया जाता है, इनके कारण हम आपको महान् नही मानते रहता था, कोई किसीके प्रवेशमे बाधक नही होता था-पशु- और न इनकी वजहमे आपको कोई खास महत्ता या बडाई पक्षी तक भी आकृष्ट होकर वहां पहुंच जाते थे, जाति-पाति ही है। छूताछूत और ऊंचनीचका उममे कोई भेद नही था, सब मनुष्य भगवान् महावीरकी महत्ता और बडाई तो उनके मोहएक ही मनुष्यजानिमें परिगणित होते थे, और उक्त प्रकारके नीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय नामक कर्मोका भेदभावको भुलाकर आपममे प्रेमके माथ रल-मिलकर बैटते नाश करके परम शान्तिको लिये हुए शुद्धि तथा शक्तिकी पराऔर धर्मश्रवण करते थे-मानो सब एक ही पिताको सतान काष्ठाको पहुचने और ब्रह्मपथका--हिसात्मक मोक्षमार्गहो। इस आदर्शसे समवसरणमे भगवान महावीरकी समता का नेतृत्व ग्रहण करनेमे है -अथवा यो कहिये कि आत्मोऔर उदारता मूतिमती नजर आती थी और वे लोग तो उसमें द्वारके साथ-साथ लोककी सच्ची सेवा बजानेमे है। जैसा कि प्रवेश पाकर बेहद संतुष्ट होते थे जो समाजके अत्याचारोसे स्वामी समन्तभद्रके निम्न वाक्यसे भी प्रकट है - पीड़ित थे, जिन्हे कभी धर्मश्रवणका, शास्त्रोके अध्ययनका, त्वं शुद्धिशक्त्योरुपयस्य काष्ठां अपने विकासका और उच्चसस्कृतिको प्राप्त करनेका अवसर तुलाव्यतीता जिन शांतिरूपाम् । ही नहीं मिलता था अथवा जो उसके अधिकारी ही नहीं अवापिय ब्रह्मपथस्य नेता ममझे जाते थे। इसके सिवाय, समवसरणकी भूमिमें महानितीयत् प्रतिवक्तुमीशा ॥४॥ प्रवेश करते ही भगवान महावीरके सामीप्यसे जीवोका
-यक्त्यनुशासन वैरभाव दूर हो जाता था, कर जन्तु भी सौम्य बन ८ ज्ञानावरण-दर्शनावरणके अभावसे निर्मल ज्ञानजाते थे और उनका जाति-विरोध तक मिट जाता था। दर्शनको आविर्भूनिका नाम 'शुद्धि' अन्तराय कमंके नाशसे इसीसे सर्पको नकुल या मयूरके पास बैठने में कोई भय वीर्यलब्धिका होना 'शक्ति' और मोहनीय कमके निर्मल नही होता था, चूहा बिना किसी मंकोचके बिल्लीका आलिंगन होनेसे अनन्त सुखकी प्राप्तिका नाम परम शालि है।