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अनेकान्त
[वर्ष ११
और उच्च संस्कृतिके अधिकारी ही नही माने जाते थे और था और सर्वत्र असन्तोष ही असन्तोष फैला हुआ था। उनके विषयमें बहुत ही निर्दय तथा घातक नियम प्रचलित थे। यह सब देखकर सज्जनोंका हृदय तलमला उठा था, स्त्रियां भी काफी तौर पर सताई जाती थी, उच्च शिक्षासे धार्मिकोंको रातदिन चैन नही पड़ता था और पीडित वंचित रक्खी जाती थी, उनके विषयमें "न स्त्री स्वातंत्र्य- व्यक्ति अत्याचारोसे ऊब कर त्राहि-त्राहि कर रहे थे। महति" (स्त्री स्वतंत्रताकी अधिकारिणी नही) जैती कठोर सबोंकी हृदय-तंत्रियोंसे 'हो कोई अवतार नया' की एक आज्ञाएँ जारी थी और उन्हे यथेष्ट मानवी अधिकार प्राप्त नही ही ध्वनि निकल रही थी और सबोंकी दृष्टि एक ऐसे थे-बहुतोंकी दृष्टिमें तो वे केवल भोगकी वस्तु, विलासकी असावारण महात्माकी ओर लगी हुई थी जो उन्हे चीज, पुरुषकी सम्पत्ति अथवा बच्चा जननेकी मशीनमात्र रह हस्तावलम्बन देकर इस घोर विपत्तिसे निकाले। ठीक गई थी। ब्राह्मणोने धर्मानुष्ठान आदि के सब ऊंचे-ऊचे अधि- उसी समय--आजसे कोई ढाई हजार वर्षसे भी अधिक कार अपने लिए रिजर्व (सुरक्षित) रख छोड़े थे-दूसरे लोगो (२५४९ वर्ष) पहले--प्राची दिशामे भगवान् महावीर को वे उनका पात्र ही नहीं समझते थे-सर्वत्र उन्हीकी तूती भास्करका उदय हुआ, दिशाएँ प्रसन्न हो उठी, स्वास्थ्यकर बोलती थी, शासन-विभागमे भी उन्होंने अपने लिए खास मद मुगर पवन बहने लगा, सज्जन धर्मात्माओं तथा रिआयते प्राप्त कर रक्खी थी। घोर-से-घोर पाप और बड़े-से- पीरितोके मुखमडल पर आशाको रेखा दीख पड़ी, उनके बड़ा अपराध कर लेने पर भी उन्हे प्राणदण्ड नही दिया जाता हृदयकमल खिल गये ओर उनकी नस-नाड़ियोमे ऋतुराज था, जबकि दूसगेको एक साधारणमे अपराध पर भी फासी (वसत) के आगमनकाल-जैसा नवरमका संचार होने लगा। पर चहा दिया जाता था । ब्राह्मणोके बिगड़े हुए जाति-भेद
महावीरका उद्धारकार्य-- की दुर्गधसे देशका प्राण घुट रहा था और उसका विकास रुक रहा था, खुद उनके अभिमान तथा जाति-मदने उन्हे
महावीरने लोक-स्थितिका अनुभव किया, लोगोकी पतित कर दिया था और उनमें लोभ-लालच, दम, अज्ञानता, स्वार्थपरता, उनके वहम, उनका अन्धविश्वास. अज्ञानता, अकर्मण्यता, क्रूरता तथा धर्ततादि दुर्गणोंका और उनके कुत्मित विचार एवं दुर्व्यवहारको देखकर निवास हो गया था, वे रिश्वतें अथवा दक्षिगाएँ लेकर उन्हे भारी दुख तथा खेद हुआ। साथ ही, पीडितांकी परलोकके लिए सर्टिफिकेट और पनि तक देने लगे थे, करुण पुकारको सुनकर उनके हृदयसे दयाका असंत धर्मकी असली भावनाएँ प्रायः लुप्त हो गई थी और स्रोत बह निकला। उन्होंने लोकोद्वारका संकल्प किया. उनका स्थान अर्थ-हीन क्रियाकाण्डो तथा थोथे विधिविधानाने
लोकोद्धारका सपूर्ण भार उठानेके लिये अपनी शक्ति-सामले लिया था; बहुतसे देवी-देवताओकी कल्पना प्रबल हो थ्यंको तोला और उसमे जो त्रुटि थी उसे बारह वर्षके उस उठी थी, उनके संतुष्ट करने मे ही सारा समय चला घोर तपश्चरणके द्वारा पूरा किया जिसका ऊपर उल्लेख जाता था और उन्हे पशुओकी बलियां तक चढ़ाई जाती किया जा चुका है। थी; धर्मके नाम पर सत्र यज-यागादिक कर्म होते थे इसके बाद सब प्रकारमे शक्तिसम्पन्न होकर महाबीरने और उनमे असख्य पशुओको होमा जाता था-जीवित लोकोद्वारका सिंहनाद किया-लोकम प्रचलित सभी अन्यायप्राणी धधकती हुई आगमे डाल दिये जाते थे और अत्याचारों, कुविचारों तथा दुगचारोंके विरुद्ध आवाज़ उनका स्वर्ग जाना बतलाकर अथवा 'वैदिको हिंसा उठाई-और अपना प्रभाव सबसे पहले ब्राह्मण विद्वानों हिंसा न भवति' कहकर लोगोको भुलावेमे डाला जाता पर डाला, जो उस वक्त देशके 'सर्वे सर्वा.' बने हुए था और उन्हे ऐसे क्रूर कर्मोके लिये उत्तेजित किया जाता थे और जिनके सुधरनेपर देशका सुवरना बहुत कुछ था। साथ ही, बलि तथा यज्ञके बहाने लोग मांस सुखसाध्य हो सकता था। आपके इस पटु सिंहनादको खाते थे। इस तरह देशमे चहुँ ओर अन्याय-अत्याचारका सुनकर, जो एकान्तका निरसन करनेवाले स्याद्वादको साम्राज्य था--बडा ही बीभत्स तया करुण दृश्य विचार-पद्धतिको लिये हुए था, लोगोंका तत्त्वज्ञानविषयक उपस्थित था--सत्य कुचला जाता था, धर्म अपमानित भ्रम दूर हुआ, उन्हे अपनी भू मानूम पड़ी, धर्म-अधर्मके हो रहा था, पीड़ितोंकी आहोंके धुएँसे आकाश व्याप्त यथार्थ स्वरूपका परिचय मिला, आत्मा-अनात्माका भेद