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________________ अनेकान्त [किरण १२ देदीप्यमान आत्मा होते हुए तीन लोकके चूडामणि 'सल्लेखनाके अनुष्ठानसे युक्त सम्यग्दर्शन-ज्ञानजैसी शोभाको धारण करते हैं। चारित्ररूप समीचनधर्म जिस 'अभ्युदय' फलको व्याख्या-जिस प्रकार खानके भीतर सुवर्ण पाषाणमें फलता है वह पूजा, धन तथा आशाके ऐश्वर्य स्थित सुवर्ण कीट और कालिमासे युक्त हुा-सा निस्तेज (स्वामित्व) से युक्त हुआ बल, परिजन, काम तथा बना रहता है। जब अग्नि प्रादिके प्रयोग-द्वारा उसका भोगकी प्रचुरताक माथ लोकमें अतीव उत्कृष्ट और वह सारा मल वट जाता है तब वह शुद्ध होकर देदीप्य- आश्चर्यकारी होता है। मान हो उठता है। उसी प्रकार संसारमें स्थित यह व्याख्या-यहाँ समीचीन धर्मके अभ्युदय फलका जीवात्मा भी मुव्यकर्म भावकर्म और नोकर्मके मलसे __ सांकेतिक रूपमें कुछ दिग्दर्शन कराया गया है। अभ्युदय मलिन हुभा अपने स्वरूपको खोए हुए-सा निस्तेज बना फल लौकिक उत्कर्षकी बातोंको लिए हुए है, लौकिकजनोंरहता है । जब सवतों और मालेवनाके अनुष्ठानादिरूप की प्राय. साक्षात् अनुभूतिका विषय है और इसलिये तपश्ररणकी अग्निमें उसका वह सब कर्ममल जलकर उसके विषयमें अधिक लिखनेकी जरूरत नहीं है, फिर भी अलग हो जाता है तब वह भी अपने स्वरूपका पूर्ण 'भूयिस्ट: 'अतिशय भुवनं' और 'अद्भुतं' पदांके द्वारा लाभकर देदीप्यमान हो उठता है, इतना ही नहीं बल्कि उसके विषयमें कितनी ही सूचनाएँ कर दी गई हैं और लोक्य चडामणिकी शोभाको धारण करता है अथोत् अनेक सचनाएं सम्यग्दर्शनके महात्म्य वर्णनमें पहले मासर्वोत्कृष्ट पदको प्राप्त करता है। चुकी हैं। पूजार्थज्ञ श्वबैलि-परिजन-काम-भोग-भूयिष्ट। -युगवीर अतिशयर्यात भुवनमद्भुतमभ्युदयं फलति सद्धर्मः।१३५॥ फतेहपुर (शेखावाटी) के जैन मूर्ति लेख (पं० परमानन्द जैन शास्त्रो) फतेहपुर राजपूताना प्रान्तके अन्तर्गत जयपुरके कम करनेका प्रयत्न करते हैं। हाँ, शहर और गांवोंके शेखावाटी जिलेका पुराना शहर है। इसे हिसारके आस-पास छायादार नीमके वृक्ष भी राजपूतानामें नबाब फतहम्वाँने स०१५०८ में बसाया था और उसे देखने में आते हैं। वे प्रायः घरोंके सामनेभी लगे हुए अपने नामसे प्रसिद्ध किया था। दिखाई देते है । और बड़-पीपल आदिके वृक्ष केवल फतेहपुर रेगिस्तानके उस बालकामय प्रदेशमें वसा धर्मायतनों में ही पाये जाते हैं। वहाँ अनेक कुवाहुमा है, जहाँ रेतके बड़े-बड़े टीले मीलों तक चारों बावड़ी है इसलिये पानीकी कभी तो नहीं है, परन्तु ओर दिखाई देते हैं। दरसे वे पहाड़ सदृश प्रतीत कुए अधिक गहरे है, और उनका पानी स्वच्छ एवं होते हैं। परन्तु वे पहाड़ नहीं हैं। हां, उनमें चमकीले मीठा है और वह स्वास्थ्यवर्धक भा है फिर भी जनता बालूकण अथवा अभ्रकके टुकड़े आगन्तुक व्यक्तिको उनसे अपना निर्वाह कर लेती है। अवश्य सम्भ्रम उत्पन्न कर देते हैं। वहाँ अन्य जंगलों- फतेहपुर में गर्मी के दिनोंमें अधिक गर्मी पड़ती के समान सघन एवं छायादार वृक्ष तो कहीं दृष्टिगोचर है-दिन भर लू चला करती है, और जाड़ेके दिनोंमें नहीं होते. पर अनेक झाड़ी, जाट, खैर केकड़ा और शीत भी अधिक पाया जाता है। वहां १५-१६ इंचसे कीकर वगैरहके वृक्षोंका समूह अवश्य दिखाई देता अधिक वारिस नहीं हातो। सिंचाईका यहाँ कोई है, जो प्रकृतिकी शोभाको धारण करते हुए अपनी साधन नहीं है, नदी भी कोई ऐसी नहीं है जिससे साधारण बायामें पथिकोंके दिनकर जनित संतापको सिचाईकी व्यवस्था हो सके, अतएव यहांकी खेती
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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