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________________ किरण भावना-पद्धति नतु परदारान् गच्छतिनपरान् गमयति पापभीर्यत्। मानिसजन नहीं है और 'भाकर सरासर सा परदारनिवृत्तिः स्वदारसंतोषनामापि ॥५६॥ मोरसे विवाहकार्यको सम्पन्नमनाभत्स ___ 'पापके भयसे (किरामादिक भबसे) पर-स्त्रियों बनसे पायोग देना है। और बिपी को-सदारमिट अन्य नियोंको-जो स्वयं सेवन वा भाबित नोंका विवाहमा सवा सविचारन करना और न दूसरोंको सेवन कराना है यह 'पर- में मात्र सखाह-मशवराभवासमतिका देवास हारनिवत्तिब्रत है, 'स्वदारसंतोष' भी उसीका वि दोषरूप अपवा पापकही। बीमार नामान्तर है-दूसरे शब्दों में उसे स्थून मधुमसे विरति हाराउन अंगोंसे या उन अंगों काम- कानेका स्यामविरति बया मर्याणवत भी कहते है। ष किया है जो मानवों में कामसेवा प्रामसेवन व्याख्या-यहाँ इस बार दो नाम दिये गये है- के लिये निहित नहीं है, और इससे स्वमेधुनारिक एक 'परदारनिवृत्ति' दसरा 'स्वदारसंतोष' जिनमें से सभी प्राकृतिक मैथुन दोष रूप हरव त्व रिकाएकनिषेधपरक दूसरा विधिपरक है। दोनोंका भाशय गमन' पदमें 'इत्वरिकान उस स्त्रीका पापको पक। विधिपरक 'स्वारसंतोष' का पायव विक्कुल चाइको बटा अथवा म्पमिरिकी हो गई हो-परती स्पद और वह अपनी स्त्री ही सन्तुप रहग- काबाचक बहनहीं बोंकि परस्त्री-गममा बाग एकमात्र उसीके साथ काम-सेवा करना । और इसलिए वो मूलबसमें ही भागया है जब बसिगरों में उसके पुनः परदारनिवृत्तिका भी वही भाशय लेना चाहिए-अर्थात त्यागका विधान कुछ ही रखा । स्वदारभित्र अन्य स्त्रीके साथ कामसेवाम त्याग। धन-धान्यादि-मन्थं परिमाय ततोऽधिकेषु निस्पृहता। इससे दोनों नामोंकी वायभूत वस्तु (महानिर) परिमितपरिणः स्यादिच्छापरिमाणनामाऽपि ॥११॥ स्वरूप में कोई असर नहीं रहता और बह एक ही "धन-धान्यादि परिप्रहको परिमित करके--- व्हरती है। प्रत्युत इसके 'परदार का अर्थ परकी (पराई) पाम्बादिल इस प्रकार के बाद परिवहोंका संख्या-सीमाविवाहिता बापरेजा की हुई स्त्री करना और एक मात्र निर्धारणात्मक परिमाण करके-जो उस परिमाणसे उसोका त्याग करके शेष कन्या गवरया सेवनकी छड अधिक परिग्रहोंमें वांछाकी निवृत्ति है उसका नाम रखना संगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि इससे दोनों नामो- 'परिमितपरिप्रह' है, 'इच्छापरिमाण' भी रसीका के अर्थका समानाधिकरण नहीं रहता। नामान्तर है-दूसरे शब्दों में उसे 'स्यून मूविरलिपरिअन्यविवाहाऽऽकरणाऽनङ्गक्रीडा-विटत्व-विपुलतृषः। प्रहपरिमाणम' और अपरिग्रहावत' भी कहते है। इत्वरिकागमनं चाऽस्मरस्य पंच व्यतीचाराः ॥६॥ व्याख्या-यह जिस पक्याम्यादि परिमापरि 'अन्यविवाहाऽऽकरण-दूसरोंक मर्यात् अपने तथा मायका विधान है वह पास परिग्रह और उ स स्वानोंसे भिड का विवाह सम्पद करने में परापोग भेद है, जैसा कि 'परिग्रहत्याग' नामकी एसबी प्रतिमा देना- अनलक्रीडा-निर्दिष्ट कामके अंगोंको कोलकर स्वरूपकथनमें प्रयुक हुए, 'वारिस बहावते. अब अंगादिकोसे या अन्य अंगादिकोंमें कामकीया से जाना जाता है।यस प्रकार परिहास करणा-विटपनेका व्यवहार-भपापनेको विपन, पाम्ब विपर, तुपद, सपनासन, पाप और काव-वचनकी कुचेष्टा- विपुलतृष्णा-कामकी ती भारत- बमें सब प्रकारको भूमि, पचौरमदीबाबसा-और इत्वरिकागमन-कुमरा व्यभिचारिणी नाशामिब।बास्तु में सब प्रकार मन्दिर, मकान, सस्त्रीका सेवन-ये स्मरके-स्वकामविरति अथवा दुकान और भवमादिक वाजिबनमें सोना-चारी, ब्रह्मापर्वानव-पांच विचार हैं। मोठी, रन, बाराक और इसे बने बाबा व्याख्या-पहा 'मन्यविशाहाss','अन्धकीचा, रुपवा वादि सब परिणाहीबाबाम्ब शालिगमा और 'इत्वरिकागमन' येतीव पदबास और ध्यान देने मर, गागरबादि सोको सब पैदावार बन्न पोग्बामन्याविवाहायपरमें 'मम्बाब्दका अभि- क्षेत्र वास्तु धन धान्य, विपदरपतुष्पदम् । प्रायानबरे बोगोंसेबी अपने दम्बी अपना शैय्यासन पवनयभारडमिवियम्।।
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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