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________________ समन्तभद्र-वचनामृत निहितका पवित्र वा सुविस्मृत का परस्वमविसृष्टम्। रूपमें स्थित थी, जबकि इसके विद कोई दूसरी नविपनपतेबदकश-चीयर्यादुपारमणम् ॥७॥ बात स्पच सिदमहोभाव। विना दिये हुए पर-म्बको, चाहे वह धरा-ढका यहाँको स्यून त्यागकी पिसे हवना और भी हो, पड़ा गिरा हो अथवा अन्य किसी अवस्थाको बागवेना चाहिये किलो पदार्थ बहुत ही साधारण व्या प्राप्त होगी अपवा वेडा) स्वयं न अत्यल्प मूल्यका हो और जिसका बिना दिये प्राव हरना-मनीविपरमाना, और न (अनधि मा उसके स्वामीको कभी अक्षरसागो-से प) दसरोंको देना है उसे स्थूल-चौर्यविरति- किसीके खेतसे हस्त-शुद्धिके लिए मिट्टी का बेना, जवाबमोनि-कहते हैं।' से पीनेको पानी प्रहण करना और इसे दाँतनका पाल्वा-वहाँ 'परस्य' और सका मुख्य विशेष तोड़ना-ऐसे पदार्थ विना दिये बनेका स्वाग इस व्रतके 'अविवाति शिवापर हीमोगसौरसे बीके लिए विहित नहीं है। इसी तरह दूसरेकी बो मालपोप। विसका स्वामी अपनेसे मिकोई वस्तु विमा संकरके ही अपने प्राण मा बाप उससे दूसरानो सपा-बान्बादि पदार्थको 'परस्व' t समसको बाधा नहीं पहुंची बोंकि अहिंसावतके पर-वन और परश्रमबीसीसरे मामहै। बसबमें प्रयुक्त हुए 'संकरपात्' पद की अनुवृत्ति इस पार्षअपने काखीम स्वामी राप्रपा सकी पतके साथ भी।। इमामबापा बनविसे दिया गयामहोपा'प्रवि. चौरप्रयोग-चौराादान-विजोप-सहशसम्मिश्राः । पप'मावा', 'पदच' भी उसीका मामान्सर हीनाधिकविनिमानं पंचाऽस्तेये व्यतीपाताः ॥८॥ और उसमें वडा अध्यक्त दोनों प्रकार पदार्थ चौरप्रयोग-चोरको चोरीके कर्ममें स्वयं प्रयुज शामिव । 'रवि' हिवापर, जिससे हरमा फलित (प्रवृत) करना, दूसरों द्वारा प्रयुचकराना तथा प्रयुक्त होवानीविपूर्वक प्रहमा सूचक उसीकी रधि ए की प्रशंसा-मनुमोदना करना, अथवा चोरीके प्रयोगों अगवा क्रियापद र मधित कपसे देनेका (पापों) को बतळा चौरकमकी प्रवृत्ति में किसी वाचकहो बाबा। और इसलिए वो पदार्थ अस्वामिक प्रकार सहायक होगा-चौराादान-आनएमकर हो अपना मावादि समय जिसका कोई प्रकार स्वामी चोरीका मानना-विलोप-दूसरों की स्थावर-जंगम मौपाना संबायो और जिसके प्रबादिमें उसके अथवा चेतन-भचेतनादिरूप सम्पत्तिको भाग बगाने, स्वानीकी स्यामाया पाशा बाधक हो उसके बम गिराने, तेजाब विषकने, विष देने भादिके द्वारा महबादिका यहाँ क्लेिष नही है। साथ ही, बो धन- अपकर देना, व्या राज्य पर्य विषयान्याय्य नियमोंसम्पति विना दिवेही किसीको उत्तराधिकारके रूप का भंग करना-सहशसंमिश्र-अनुचित लाभ उठाने पाच होगी उसके प्राचाविका भी इसके प्रतीके प्रयासरोंकोगनेकी रष्टि से बरीमें समान रंग-रूपादिशिव विच की। इसी वरण बोहात स्वामिक कीमाटी तथा गुमायमें परमल्य बस्तुकी मिबाट पति अपनी मिवकिपसमकामादिकमीवर भू- करना और मसीको नाममा मसबीके रूप में देनामाद पायो सभी प्रामादिका सके और होनाधिकविनिमान-देने के बाद-पराध विषयही समकामारिका माविक गजमाने मादिकमती-बसी रखना और उनके द्वारा पायसम्बदा सम्पत्तिका मी मावा माखिक कमवी-बसी बोल-माप करके अनुचित बाम म्हावा, और यह समकमा चाहिए ये पाँचों अस्वेयके-सोचमक-व्यतिपात हैंपिसी सम्बस अपवा गुप्त सम्पचिक अतिचार अथवा दो ।
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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