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किरण]
बुन्देलखण्ड
कविवर देवीदास
गणधर रच्यो एसो गुणको निधान भारी,
श्रेणिक
[क] रची गई है। प्रस्तुत ग्रन्थ प्रति भारी अशुद्धियों को लिये हुए है, और देहली के संडके कूका भएकारकी है। इस प्रतिकाखक उस प्रथको प्रतिनिधि प्रायः अपति चित जान पड़ता है, इसीसे उक्त ग्रन्थ में इतनी अधिक समझ समझ ताहि घर माँहि राख्यौ है। ज्ञात होती हैं । ग्रन्थ में कितनेक स्थान विक्रमी दर्शन मुहीन बाल बंदिए 'न तीन काल, छोड़े गए हैं, जो मेरे उक्त विचारोंको पुष्ट करते हैं। प्रन्थगत रचनाओंके नामानि इस प्रकार हैं.
कारण न होत जिनवानी मांहि नास्यी है। सम्मत सलिल पडो चिहिय परिए जस्स । कम्म बालुय पर बंधुरिचय सासिए तस्स ||७|| ममदर्शन नीर प्रमाण को
तिनके घट जासु प्रवाह वह्यौ । बाल अकर्म अनादि पगे,
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पहली रचना 'परमानन्द स्तोत्र भाषा है, को संस्कृत 'परमानन्द स्तोत्र' का पद्यानुवाद है। दूसरी रचना 'जीव की दादी है। सीकरी माnt' है, जिसमें जिन भगवानोंके अन्तकको सूचित किया गया है। चौथी रचना 'धर्म पच्चीसी' है, पाँचवी रचना 'पंच पद पचीसी है। रचना 'दशधासाम्यवोके स्वरूप बोधक पद्योंको लिये हुए 'सम्ययस्व बोधक' है । सातव रचना 'पुकार पच्चीसी' है। जिसके दो पद्म पहले दिये जा चुके है जिनमें सिनेमके गुखका व्याक्यान करते हुए जीवके चतुर्गति-दुःखो और भ्रष्टकर्मों के बन्धनसे छुटकारा पाने की प्रार्थना अथवा पुकार की गई है चारों पना 'बीपी' है, जिसमें जीवके शुभ-अशुभ और शुद्ध रूप त्रिविध परिणामोंका कथन ३१ सा सबैयोंमें दिया हुआ है, जिसके आदि अन्त पथ नीचे दिये जाते है:
तमु फूटत नेकु न वारु लगे ॥ जह मूलम्म विराट्ठे दुमरस परिवार परिवडी । तह जिमभट्टा, मूल विट्टा ए सिज्यंति || जैसे तरुवर विनस्यौ मूल,
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बड़े न शाखा परिकर फूल ।
मन मनन करके नमी, शुद्ध आतमाराम । वरनीन दरबके, त्रिविधरूप परिणाम ॥ वीतराग पच्चीसिका पत्र मुने रस पोष परमारथ परचै सुनर, पायें अविचल मोष ||२६||
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नौवीं रचना 'दर्शन पच्चीसी' है, जिसमें श्राचार्य कुन्दकुन्दके 'दस पाहुड' नामक प्राकृत ग्रन्थका पथानुवाद दिया हुआ है । रचना सरस और भावपूर्ण है । अनुबाद
३१.२३ सा छप्पय गीतिका, कोरक, चौपाई, टोहा, साकिनी, धरिवल, कुडलिया, मरहठा, चर्चरी, बेसरी, पदडी, नाराच और कवित्तादि विविध छन्दोंमें किया गया है। पाठकोंकी कारीजिये उसके पच सूख गाथाओ के साथ नीचे दिए जाते है:
पद्य
मूलो धम्मो, उपट्टो जिबरेहिं सिस्साएं । तं सो सकरये दंसण दीयो य दिव्यो ॥२॥ धरमकी मूल जामैं भूल कहूँ कलू नाहि,
दर्शन सुनाम ताहि भगवान भाष्यौ है।
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जाके कार्य भए सोई सुनि मुनि पाक्यो है ॥ आदि जीव संत सब रुचि मानि
जैसे दिन दर्शन वर कोई, धर्म
मूल
विन मुकति न होई ॥
में निम्न दोहा देकर पूर्ण
कविने सबके किया हैं : --
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कुन्दकुन्द मुनिराज कृत दर्शन पाहुद मूल कोनी परम्परा, भाषा मति सम तूल ॥
दशवीं रचना 'बुद्धियायनी' है, जिसमें २४ पद्य विविध छन्दों में दिये हुए हैं। साथही इस अम्पके अन्त में उक्त कृतिके रचे जाने और उसके समयादिकाभी निर्देश किया गया है। जिससे स्पष्ट है कि उक्त बुद्धिबावनी सं० १८१२ मे, दुगौड़ा ग्राम चैतदि परमागुरुवार के दिन समाप्त हुई है। उस समय भी वहाँ सावन्तसिंहका राज्य था। उक्त प्राममें कविको गंगाराम, गुपालचन्द और कुमापति आदि सम्म जोगांबाद दुगौदा ग्रामके निवासी थे कविको उनसे पोषित शिक्षा मि रहती थी । यथा
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संवतु साल अठारह से पुनि द्वादश और धरै अधिकार चैतमुदि परमा गुरुवार कवित्त जत्रे इकठे करि धार ।। गंगह रूप गुपाल कहे कमलापति मीख सिखावनहारे