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अज-सम्बोधन (वध्य-भूमि कोजाता हुमा बकरा)
हे अज !क्यों विषण्ण-मुख हो तुम, किस चिन्ताने घेरा है ? पर न उठता देख तुम्हारा, खिन्न चित्त यह मेरा है। देखो, पिछली टांग पकड़ कर, तुमको वषक उठाता है । और बोरसे चलनेको फिर, धक्का देता जाता है !!
कर देता है उलटा तुमको दो पैरोंसे खड़ा कभी ! दाँत पीस कर ऐंठ रहा है कान तुम्हारे कभी कभी !! कभी तुम्हारी क्षीण-कुक्षि मुक्के खूब जमाता है ! अण्ड-कोषको खींच नीच यह फिर फिर तुम्हें चलाता है!!
सहकर भी यह घोर यातना, तुमनहिं कदम बढ़ाते हो, कभी दुबकते, पीछे हटते, और ठहरते जाते हो !! मानों सम्मुख खड़ा हुआ है सिंह तुम्हारे बलधारी, आर्तनावसे पूर्ण तुम्हारी 'मे में है इस बम सारी !!
शायद तुमने समझ लिया है अब हम मारे जावेंगे, इस दुर्बल औं दीन-दशामें भी नहि रहने पावेंगे !! छाया जिससे शोक हृदय में इस जगसे उठ जानेका, इसी लिए है यत्न तुम्हारा, यह सब प्राण बचाने का !!
पर ऐसे क्या बच सकते हो, सोचो तो, है ध्यान कहां ? तुम हो निबल, सबल यह घातक, निष्ठुर, करुणा-हीन महा। स्वायं-साधुता फैल रही है, न्याय तुम्हारे लिए नहीं ! रक्षक भक्षक हुए, कहो फिर,कौन सुने फरियाद कहीं !!
इससे बेहतर खुशी खुशी तुम वध्य-भूमिको जा करके, बधक-छुरीके नीचे रख दो निज सिर, स्वयं मुका करके। 'आह भरो उस बम यह कहकर,"हो कोई अवतार नया, महावीरके सदृश जगतमें, फैलावे सर्वत्र दया" ॥
-युगवीर