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किरण १
परम उपास्य कौन ?
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१०७-पाको शान्ति बभीष्ट इम्निय-विषयोंकी ११४-वस्तु हो अबस्तु हो जाती है, प्रक्रियाके बदल सम्पत्तिसे नहीं होती, प्रत्युत इसके वृद्धि होती है।
जाने अथवा विपरीत हो जानेसे । १०८-आध्यात्मिक तपको वृति लिये है बाह्य ११५-कर्म कर्तारको छोड़कर अन्यत्र नहीं रहता। तप विषय है।
११६-जोकर्मका कर्ताह वही उसके फलका भोक्ताहै। १०९-यदि आध्यात्मिक तपकी वृद्धि ध्येय अथवा
११७ अनेकान्त-शासन ही अशेष-धोका आश्रय-भूत लक्ष्यमें न हो तो बाह्य तपश्चरण एकान्ततः शरीर-पीडन- और सर्व-आपदाओंका प्रणाशक होनेसे 'सर्वोदयती है। के सिवा और कुछ नहीं।
११८-जो शासन-वाक्य धोंमें पारस्परिक अपेक्षा११० सद्ध्यानके प्रकाशसे आध्यात्मिक अन्धकार
का प्रतिपावन नहीं करता वह सब धर्मास शून्य एवं विरोषदूर होता है।
का कारण होता है और कदापि 'सर्वोदयतीर्ष नहीं हो १११-अपने वोषके मूल कारणको अपने ही समाधि- सकता। तेजसे भस्म किया जाता है।
११९-आत्यन्तिक-स्वास्थ्य ही जीवोंका सच्चा स्वार्थ ११२-समाधिकी सिद्धिके लिये बाह्य और आभ्यन्तर है, क्षणभंगुर भोग नहीं। बोनों प्रकारके परिग्रहोंका त्याग आवश्यक है।
१२०-विभावपरिणतिसे रहित अपने अनन्तज्ञानादि११३-मोह-शत्रुको सदृष्टि, संवित्ति और उपेक्षा- स्वरूपमें शाश्वती स्थिति हो 'आत्यन्तिकस्वास्थ्य कहलती म अस्त्र-शस्त्रोंसे पराजित किया जाता है।
है, जिसके लिये सवा प्रयत्नशील रहना चाहिये।
परम उपास्य कौन ?
वे है परम उपास्य, मोह जिन जीत लिया ॥घव।। काम-क्रोध-मद-लोभ पछाड़े सुभट महा बलवान । माया-कुटिलनीति-नागनि हन, किया आत्म-सत्राण ॥१॥ मोह.
ज्ञान-ज्योतिसे मिथ्यातमका जिनके हुआ विलोप ।
राग-द्वेषका मिटा उपद्रव, रहा न भय औं शोक ॥२॥ मोह. इन्द्रिय-विषय-लालसा जिनकी रही न कुछ अवशेष। तृष्णा नदी सुखादी सारी, घर असंग-व्रत-वेष ॥३॥ मोह.
दुख उद्विग्न करें नहिं जिनको, सुख न लुभावें चित्त।
आत्मरूपसन्तुष्ट, गिर्ने सम निर्धन और सवित्त ॥४॥ मोह. निन्दा-स्तुति सम लखें बने जो निष्प्रमाद निष्पाप । साम्यभावरस-आस्वादनसे मिटा हृदय:सन्ताप ॥५॥ मोह.
अहंकार-ममकार-चक्रसे निकले जो धर धीर ।
निर्विकार-निर्वैर हुए, पी विश्व-प्रेमका नीर ॥६॥ मोह. साप आत्महित जिन वीरोंने किया विश्व-कल्याण। 'युग-मुमुक्षु' उनको नित ध्यावे, छोड़सकल अभिमान ॥७॥ मोह.
-युगबीर