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________________ भनेकान्त ७३-विधि-निषेध विवक्षासे मुख्य-गौणकी व्यवस्था ९२-सबोध-पूर्वक बो बाचरण है वही सन्चारित्र है अथवा ज्ञानयोगीके कर्मावानको निमित्तभूत बोलियम् -७४-वस्तुके किसी एक धर्मको प्रधानता प्राप्त होने- उनका त्याग सम्यक्चारित्र है। पर शेष धर्म गौण हो जाते है। ९३-अपने राग-मेष-काम-कोचास्मिोपोंको शान्त ७५-स्तु वास्तवम विधि-निवेवादि-स्प दो-दो करनेसे ही आत्मामें शान्तिको व्यवस्था और प्रतिष्ठा अवषियोंसे ही कार्यकारी होती है। होती है। ७६बाह्य और माभ्यन्तर अथवा उपावाल और निमित्त ९४-ये राग-नेवावि-दोष, जो मनकी समताका निरादोनों कारणोंके मिलनेसे ही कार्यको निष्पत्ति होती है। करण करनेवाले है, एकान्त धर्माभिनिवेश-मूलक होते हैं ___ो सत्य है वह सब बनेकान्तात्मक है, अनेकान्तके और मोही जीवोंके अहंकार-ममकारसे उत्पन्न होते है। विना सत्यकी कोई स्थिति ही नहीं। ९५-संसारमें अशान्तिके मुख्य कारण विचार-पोष और आचार-बोष हैं। ७८-जो अनेकान्तको नहीं जानता वह सत्यको नहीं " पहचानता, भले ही सत्यके कितने ही गीत गाया करे। ९६-विचारदोषको मिटानेवाला 'अनेकान्त' मौर ७९-अनेकान्त परमागमका बीज अथवा नागम- आचारदोषको दूर करनेवाली 'अहिंसा है। का प्राण है। . ९७-अमेकान्त और अहिंसा हो शास्ता बीरविन अपवावीरजिन-शासनके दो पद है। ८०-जो सर्वथा एकान्त है वह परमार्थ-शून्य है। ९८-अनेकान्त और हिंसाका मामय लेनेसे ही ८१-जो दृष्टि अनेकान्तात्मक है वह सम्यग्दृष्टि है। विश्व शान्ति हो सकती है। ८२-मोवृष्टि अनेकान्तसे रहित है वह मिथ्या दृष्टि है। ९९-जगतके प्राणियोंको अहिंसा ही परमाह्म है, ८३-जो कथन अनेकान्तदृष्टिसे रहित है वह सब किसी व्यक्तिविशेषका नाम परमब्रह्म नहीं। मिथ्या है। १००-जहां बाह्याभ्यन्तर बोनों प्रकारके परिप्रहोंका ८४-सिद्धि अनेकान्तसे होती है। त्याग है वहीं उस अहिंसाका वास है। ८५-सर्वथा एकान्त अपने स्वरूपकी प्रतिष्ठा करने में १०१-जहां दोनों प्रकारके परिग्रहोंका भारवहन भी समर्थ नहीं होता। अथवा वास है वहीं हिंसाका निवास है। ८६-ओ सर्वथा एकान्तबादी है वे अपने बरी माप हैं। १०२-जो परिग्रहमें आसक्त है वह वास्तव में ८७-जो अनेकान्त-अनुयायी है वे वस्तुतः महज्जिन- हिंसक है। मतानुयायी है, भले ही वे 'महन्त' या जिनको म जानते हों। १०३-आत्मपरिणामके घातक होनेसे मूठ, चोरी, ८८-चया, बम, त्याग और समाधिमें तत्पर रहना कुशील और परिग्रह ये सब हिंसाके ही रूप है। आत्मविकासका मूल है। १०४-धन-धान्यादि सम्पत्तिके रूपमें जो भी सांसा. ८९-समीचीन धर्म सवृष्टि,सद्घोष और सच्चारित्र-रिक विभूति है वह सब बाघ परिग्रह है। रूप है, यही रत्नत्रय-पोत और मोलका मार्ग है। १०५-आभ्यन्तर परिग्रह पनिनोह, राग, शेक, काल, १०-अनेकान्तवृष्टिको 'सदृष्टि' या सम्यग्दृष्टि कोष, मान, माया, लोभ, हास्य, शोक, भय और गुप्ता के रूपमें है। १४ावृष्टिको लिये हुए जो ज्ञान है यह सदोष १०६-तृष्णा-मबीको अपरिपह-सूर्यकेशारा सुखाया माता और विद्या-नौकासे पार किया जाता है।
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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