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किरण १
वीर-शासनके कुछ मूल सूत्र ४५-सापेक्षनय परके विरोषको न अपनाकर समन्वय ५८-तदतत्स्वभावमें एक धर्म दूसरे धर्मसे स्वतन्त्र की दृष्टिको लिये हुए स्वपरोपकारी होते हैं, इससे जगतमें न होकर उसकी अपेक्षाको लिये रहता है और मुख्य-गोषकी शांति-सुखके कारण है।
विवश उसकी व्यवस्था उसी प्रकार होती है जिस प्रकार ४६-द्दष्ट और इष्टका विरोषी न होनेके कारण कि मथानीकी रस्सीके दोनों सिरॉकी। स्यावाद निर्दोषवाद है जबकि एकान्तबाद दोनोंके विरोधको ५९-विवक्षित मुख्य और अविवक्षित गौण होता है। लिये हुए होनेसे निर्दोषवाद नहीं है।
६.-मुख्यके बिना गौण तथा गौणके बिना मुख्य नहीं ४७-'स्यात्' शब्द सर्वयाके नियमका त्यागी, पया- बनता। जो गौण होता है वह निरात्मक या सर्वथा अभावरूप इष्टको अपेक्षामें रखनेवाला, विरोधी धर्मका गौणरूपसे नहीं होता। बोतनकर्ता और परस्पर-प्रतियोगी वस्तु के अंगरूप षौकी
६१-वही तत्व प्रमाण-सिख है जो तबतत्स्वभावको संधिका विधाता है।
लिए हुए एकान्तवृष्टिका प्रतिषेधक है। ४८-जो प्रतियोगीसे सर्वथा रहित है वह आत्महीन ६२-वस्तुके जो अंश (धर्म) परस्पर निरपेक्ष हों होता है और अपने स्वरूपका प्रतिष्ठापक नहीं हो सकता। वे पुरुषार्थके हेत अथवा अर्थ-क्रिया करने में समर्थ नहीं होते, ___ ४९स तरह सत्-असत्, नित्य-अनित्य, एक, अनेक, सापेक्ष अंश ही उस रूप होते है। शुभ-अशुभ, लोक-परलोक, बन्ध-मोक्ष, द्रव्य-पर्याय, सामान्य
६३-जो द्रव्य है वह सत्स्वरूप है। विशेष, विद्या-अविद्या, गुण-दोष अथवा विधि-निवेधाविके
६४-जो सत् है वह प्रतिक्षण उत्पाव-व्यय-प्रौव्यसे रूपमें जो असंख्य अनन्त जोडे है उनमेसे किसी भी जोके एक साथीके बिना दूसरेका अस्तित्व नहीं बन सकता।।
__६५-उत्पाद तथा व्यय पर्यायमें होते हैं और प्रौव्य गुण५०-एक धर्मीमें प्रतियोगी धर्म परस्पर अविनाभाव
में रहता है, इसीसे द्रव्यको गुण-पर्यायवान् भी कहा गया है। सम्बन्धको लिये हुए रहते है, सर्वथा रूपसे किसी एकको कभी व्यवस्था नहीं बन सकती।।
६६-जो सत् है उसका कभी नाश नहीं होता। ५१-विधि-निषेधाविरूप सप्त भंग संपूर्णतत्त्वार्थपर्यायों- ६७-जो सर्वथा असत् है उसका कभी उत्पाद नहीं में घटित होते है और 'स्यात्' शब्द उनका नेतृत्व करता है। होता।
५२-सारे ही नय-पक्ष सर्वथा रूपमें अति दूषित है और ६८-व्य तथा सामान्यरूपसे कोई उत्पन्न या विनष्ट स्थातरूपमें पुष्टिको प्राप्त है।
नहीं होता; क्योंकि द्रव्य सब पर्यायोंमें और सामान्य सब ५३-जो स्यावादी है वे ही 'सुवादी' है, अन्य सब विशेषोंमें रहता है। कुवादी है।
६९-विविध पर्याय व्यनिष्ठ एवं विविध विशेष १४ जो किसी अपेक्षा अथवा नयविवक्षाको लेकर सामान्यनिष्ठ होते है। वस्तुतत्त्वका कथन करते है वे स्याद्वादी है, भले ही 'स्यात्
७.-सर्वथा द्रव्यको तथा सर्वपापर्यायको कोई शम्बका प्रयोग साथमें न करते हों।
व्यवस्था नहीं बनती और न सर्वथा पृथग्भूत व्य-पर्याय५५-कुशलाऽकुशल-कर्माविक तया बन्ध-मोक्षाविककी
की मुगपत् ही कोई व्यवस्था बनती है। सारी व्यवस्था स्याद्वादियों अथवा अनेकान्तियोंके यहां हो
७१-सर्वथा नित्यमें उत्पाद और विनाश नहीं बनते, बनती है, दूसरोंके यहां वह नहीं बन सकती।
विकार तथा क्रिया-कारककी योजना भी नहीं बन सकती। ५६-सारा वस्तुतत्त्व अनेकान्तात्मक है।
५७-जो अनेकान्तात्मक है यह अभेव-भेदात्मकको ७२-विषि और निवेष दोनों कर्वचित् इष्ट है, सर्वा तरह तक्ततस्वभावको लिये होता है।