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कविवर धानतराय
या अनुभव करनेका प्रयत्न किया है। परन्तु मै अभी तक साघो! छाडो विषय विकारी, जाते तोहि महादुख भारी॥ उसमें पूर्ण सफलताको नही पा सका, जिसे प्राप्त करनेकी जो जैनधर्मको ध्यावं, सो आत्मीक-सुख पावै ॥१॥ मेरी उत्कट अभिलाषा है। परन्तु मेरा यह चैतन्यात्मा हाड, गज फरस विषे दुख पाया, रस मीन गंध अलि गाया। मांस और लोहूकी थैलीमें वास कर रहा है, वह तीन लोकका लखि दीप शलभ हितकीना, मृग नावि सुनत जिय दीना ।।२।। ठाकुर होकर भी भिखारी क्यों बन रहा है ? इसके भिखारी ये एक एक दुखदाई, तू पंच रमत है भाई। बननेका क्या कारण है और उसे मै कैसे दूर कर सकता हूँ? यह कौनें सीख बताई, तुमरे मन कैसे आई ॥३॥ इस शरीरको मै नित्य पुष्ट करता हू । और अनेक प्रयत्नोसे इन माहिं, लोभ अधिकाई, यह लोभ कुगतिको भाई। इसकी सार सम्हाल भी रखता है, तथा हर समय इसे साफ- सो कुगति माहि दुख भारी, तू त्याग विषय मतिभारी ॥४॥ सुथरा रखनेका भी यत्न करता है, परन्तु खेद है कि वह ये सेवत सुखसे लागे, फिर अन्त प्राणको त्यागे । मुरझाता एव सूखता चला जाता है, मै इसकी निरन्तर सेवा ताते ये विष-फल कहिये, तिनको कैसे कर गहिये ॥५॥ करता हुआ भी हार रहा है और वह जीत रहा है। इस कारण तबलौ विषया रस भाव, जबलो अनुभव नहि आवै । इस अवस्थामे मेरे में जो कुछ भी उस आत्मदेवकी मेवा जिन अमृत पान न कीना, तिन और रसन चित दीना ॥६॥ अथवा वीतगगी प्रभुका भजन हो सके वही मेग कर्तव्य अब बहुत कहा लो कहिए, कारज कहि चुप है रहिये । है। फिर भी कविवर कहते है -'कि हे द्यानन' जिन नाम- ये लाख बात की एक, मत गहो विषयकी टेक ॥७॥ का स्मरण करनेमे अनेक जीव समार समुद्रमे तर गए, जो तजै विषयकी आसा, द्यानत पावं शिववामा । जिनकी गणना करना शक्य नही, इस कारण मुझे भी दुख- यह सत गुरु सीख बताई, काहू विरले जिय आई ॥८॥ दायी विकयाओको छोडकर उसी नामको जपना चाहिए, “तूने इस विषय-सामग्रीके सचय करने में ही अपना जिन्होने उस कालको भी जीतकर स्थिर अवस्था प्राप्त अमूल्य समय लगाया है, और पर पदार्थोंको मेरा मेरा कहता की है। जब मसाग्मे तेरा कोई सहाग नहीं होता उस समय इस जन्मको व्यतीत किया है। पर पर्यायोमें रत होकर अपने जिन नाम ही, मुख, दुःख, जीवन और मरणादिसे तेरी स्वरूपकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया, किन्तु बार-बार उस रक्षा करता है।
ममता ठगनीसे ठगा गया, इन्द्रिय-सुखको देखकर अपने विषय-विरक्ति--
वास्तविक मुखको भूल गया, और कभी तूने उन पाचों ___ कविवरकी विषय-विरक्तिकी सूचक कुछ विचार- इन्द्रियोको वशमें करनेका प्रयत्न नहीं किया। किनु धन, धाराए इस प्रकार है.--'जब इस नरकायाकी प्राप्तिके रामा और धामकी संभालमें अपने नरभव रूप अमोलक हीरेलिये सुरपति (इन्द्र) भी तग्मता है और विचारता है कि को लगाता रहा। इस शरीरको पुष्ट करता हुआ भी अपने में इस नरभवको कब पाऊ ओर दीक्षा लेकर सयमका हितको क्यों नही देवता, झूठे सुखकी आशामें इधर-उधर आचरण करू। तब मै उसे पाकर भी विषयोकी लालसाम डोल रहा है ? दुःखको सुख समझकर मूढजनोकी सगति खो रहा है। ये विषय पिशाच मुझे उस आत्म-निधिका मे हर्ष मानता है, किन्तु सत्समागमसे डरता है, झूठ कमाता, भान नहीं होने देने, जिमे मै अनादिकालम भूला हुआ था । ये झूठ ही खाता और झूठी जाप जपता है, सच्चा साई तुम विषय मुझे बाह्यमे रमणीय-मे प्रतीत होते हैं, परन्तु ये नही सूझता, तू इस ससारसे क्योकर पार होगा, यह कुछ विषय कारे नागमे भी अत्यन्त भयकर और प्राण घानक है। समझमें नहीं आता। यममे डरता है, और पर पदार्थोंकी इनमे जो फसा वही अपनेको खो बैठता है, अपना सर्वस्व सम्प्राप्तिसे फूला फिरता है और उनमें मै, में की कल्पना गमा देता है। ये विषय महादु.ग्वकारी है , तू इनकी सगतिमे करता है । जब यह शरीर भी तेरा नही और न तेरे साथ ही अनेक दुःखोका पात्र बनता हुआ भी अपने हितको नही जाता है, जिसके सरक्षण और सवर्द्धनमे तू रानदिन लगा देखता । अब लाख बातकी एक बात है और वह यह कि तू रहता है, तब अपनेसे सर्वथा भिन्न स्त्री, पुत्र, मित्र और अब इन विषयोकी टेव छोड दे। जो इन विषयोकी आशा- धनादि सम्पदा तेरी कैसे हो सकती है ? तूने इन्हीके कारण को छोड़ देता है वही वास्तविक सुखका अधिकारी बनता है?' अनेक पाप उत्पन्न किये हैं तो भी तेरी तृष्णा पुरानी नही इस तरह मनमे कुछ गुनगुनाते हुए कविवर कहते है:- हुई। तेरी तृष्णारूपी इस भारी गड्डे में तीन लोककी सम्पदा