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________________ अनेकान्ल [११ । नही होने देता। यह काल तुझे भी देख रहा है, अवसर पाते ही तुझ खा जावेगा, फिर तू ऐसा उपाय एव प्रयत्न क्यों नही करता, जिससे इस कालरूप सिहसे तुझे सदा के लिए छुटकारा मिल सके। भेदविज्ञान और आत्मानुभव- भेदविज्ञान और आत्मानुभव - विषयक कविवरके कुछ विचार इस प्रकार है. - 'देहादिकपर द्रव्य न मेरे, मेरा चेतनवाना' कर्मोदयसे प्राप्त शरीरादिपर द्रव्य मेरे नही है, में चेतनद्रव्य हू और यह सब दीखनेवाले पदार्थ मेरे से सर्वथा भिन्न जड़स्वरूप है। वे मेरे कभी नहीं हो सकते, और नई में मोहवश इनमें रागी द्वेषी हुआ ससार परिभ्रमणके कारणभूत कर्मोका सचय करता रहा हू । अब भाग्यवश मुझे उस विवेक अथवा भेद विज्ञानकी प्राप्ति हुई है जिसके लिये मैं वर्षो से प्रयत्नशील हो रहा था और जिसे ससारके सभी प्राणी प्राप्त करना चाहते हैं । उस आत्मतत्वरूपी चिन्तामणिके प्राप्त होते ही मेरी वे सब इच्छाए शान्त हो गई है । वह चैतन्यज्योति समरस और अनाकुल है जिसके पावन प्रकाश में वे सब पद अपद प्रतीत होते है जिनकी चाहने इस मूढ प्राणीने अपना सर्वस्व खोया है । अब मेरी स्थिति ही बदल गई है जिस आत्मरसके बिना इन्द्रिय-भांग सुहावनेसे प्रतीत होते थे, वे ही उस सद्दृष्टिके प्राप्त होते ही सब अरुचिकारक और सन्ताप करनेवाले ज्ञात होते हैं । ससारके सभी विषय अब मुझे नीरम एव दुखदाई जान पड़ते है । आत्मानुभव ही चिन्तामणि है। इसके सुधारसमे वह मधुरता है जो अन्यत्र कही प्राप्त नहीं होती। इसके लिये अनेक तीर्थो मे गया, अनेक कठिनाइया ली, पाषाणांकी पूजा की, परन्तु वहा उसकी प्राप्ति नहीं हुई किन्तु जब मैने अपनी ओर दृष्टि पसारकर देखा तो उसे मैने अपने घट ही विराजमान पाया, जिस तरह तिलमे तेल और चकमक आग है उसी तरह इस शरीरमे आत्मदेव है । वह मेरे निकट और नजीक है सिर्फ अपने 'घेतनवाने' को देखनेकी आवश्यकता है । कविवर स्वयं निम्न पदमें अपनी उस स्थितिक व्यक्त करते है. - मैं एक शुद्ध ज्ञाता, निरमल मुभावराता । दृग -ज्ञान-वरन-धारी, थिर चेतना हमारी ॥ तिहु काल परसो न्यारा, निरद्वद निरविकारा। आनन्दकन्द चन्दा, द्यानत जगत सदंदा । अब चिदानन्द प्यारा, हम आपमें निहारा ।" १९६ । अणुके समान है। फिर बता ये तेरा आशारूपी कांला कैसे मर सकता है ? इसे अनेकोंने भरनेका प्रयत्न किया, पर वे सब अन्तमें निराश हुए हैं । घन संख्यात है और अनन्तीतृष्णा है, वह कैसे पूरी हो सकती है, वृक्षको छाया और नरकी माया क्षण-क्षत्रमें घटती-बढ़ती रहती है। इसकी पूर्तिका एकमात्र उपाय सन्तोष है, जिन्होने उसका आचरण किया. ही संसार में मुखी हुए है। इस ठगनी तृष्णाको साधुओने यो ही कोड दिया है जिन तरह नाकका मैल निकालकर फेंक दिया जाता है।" 'इनकी सति ने भव-भवने दुःख सहन किये हैं। और भव-भवकी अनन्त पर्यागोको छोटा है, ऐसा कौनसा स्थान है जहां तूने जन्म-मरण नही किया । तीन लोकके अनन्तपुत्रलोका तूने भक्षण किया है। यदि उन सबका हिसाब लगाया जाय तो वह तेरे अमित दुःखका कारण होगा। इन सब दुखोंको तूने बिना किसी समभावके सहन किया है । खेद है कि तू आज भी अज्ञानी बन रहा है । हे द्यानत! तू ज्ञानरूपी सुधारसका पान क्यो नही करता, जो अजर अमर पदका स्थान है। इस शरीरका मूल कारण ममता है, तू उस ममताका नाश कर ज्ञाता क्यो नही बनता ? ससारमें जितने शरीरधारी हुए उन सबको मृत्युने खाया है । जिनकी तिरछी भोहें देखते ही बड़े-बड़े क्षत्री राजा दर जाते है, इन्द्र और फणीन्द्र जिनके चरणोमे पहते थे उन्हे भी कालरूपी सिने अछूता नही छोडा । जिस महाबली रावणने इन्द्र जैसे सुभटको पराजित किया, उसी रावणको लक्ष्मनने मार भगाया। उस महा सुभट लक्ष्मणको भी कलने नही बकसा । जिस कृष्णने कस और जरासध जैसे शूरवीरोको प्राणरहित किया, उसी कृष्णको जरत्कुमारके बाणने मृत्युके मुखमें पहुचा दिया। जिस परशुरामने कई बार वीर क्षत्रियोको मारकर इस भूमिको क्षत्रि - विहीन करनेका प्रयत्न किया, उसी परशुरामको सुभूमिचकवतीने प्राणरहित किया, और वह सुभूमि भी काल कवलित हो गया । फिर तू अपनेको क्यो अमर समझता है ? और इस जब सम्पदाके अविनाशी होनेकी कल्पनामें मग्न हो रहा है। ये सब आत्मीय जन एवं परिजन तुझे ममताकी दृढ़ सालोंसे जकड़े हुए है। तू इनकी मोहममता अपनेको सर्वथा भूल रहा है। यह घर बंदीग्रह है, और परपदार्थोंकी प्राप्तिका लोभ यह चौकीदार है, जो तुझे आत्महितसे सदा रक्षित रखता है-उसमें प्रवृत
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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