________________
कविवर बुधजन और उनकी रचनाएं
२४
उक्त प्रकरणोंमेंसे प्रथम प्रकरणमें कविने देवता- "विपताको धन राखिए धन दीजे रसि दार । विषयक अनुराग एवं भक्तिका सजीव चित्रण किया है । आतमहितको छोड़िए धन दारा परिवार ॥" बुषजन कविके देवानुराग-विषयक कथनको देखते हुए महात्मा "आपदर्थे धनं रक्षेत् दारान् रक्षेननरपि । सूर और कविवर तुलसीके देव-भक्तिविषयक पद भी कही आत्मानं सततं रक्षेद्दारैरपि धनरपि।" -हितोपदेश स्मृतिका विषय बन जाते है । संभव है उनकी कुछ छाया "रिपु समान पितु मात जो, पुत्र पढाब नाहि । कविपर पड़ी हो, जैसा कि निम्न उद्धरणसे स्पष्ट है:
शोभा पावै नांहि सो, राज सभाके मांहि ।" "मेरे अवगुन जिन गिनौ, मै औगुनको घाम ।
"मातः शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः । पतित उद्धारक आप हो, करोपतितको काम।"-बुधजन ___ न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा ।"-हितो. "प्रभु मेरे अवगुन चित्त न धरो।
___ इसी तरहके और भी कितने ही दोहे है जिन्हें संस्कृत समदर्शी है नाम तिहारो चाहो तो पार करो॥"-सूरदास
पात पद्योंका भावानुवाद कहा जा सकता है।
या "रामसो बड़ो है कौन मोसे कौन छोटो। रामसौं खरो है कौन मोसे कौन खोटो।"-तुलसी ,
उक्त सतसईमें नीति-विषयक दोहे कुछ ऐसे भी है सुभाषित नीतिपर भी कविने २०० दोहे लिखे है,
___जिनकी अन्य हिंदी कवियोके दोहोंके साथ समानता पाई उनके पढ़नेसे कविके अनुभवपूर्ण पाडित्यकी झांकीका
जाती है। पाठकोकी जानकारीके लिये यहां सिर्फ ४ दोहे सहज ही दर्शन हो जाता है। उनमे कितने ही दोहे संस्कृत
ही दिये जा रहे है.के नीति-सम्बन्धी श्लोको के सूचक है । हिंदी भाषाके प्रायः सब ___"दुष्ट मिलत ही साधुजन, नही दुष्ट हा जाय । ही कवियोने (वृन्द, रहीम, और तुलसी आदि ने) सस्कृत
चन्दन तरु को सर्प लगि, विष नहीं देत बनाय । बुधजन पद्योके नीति-विषयक पद्योका अनुवाद ही दोहोमें किया बुद्धिवान गम्भीरको संगत लागे नांहि । है। इसलिये इस सम्बन्धमें कविवर बुधजनको उनका
ज्यों चन्दन ढिग अहि रहत विष न होय तिहि माहि । वृन्द अनुकरण करने वाला नहीं कहा जा सकता कितु वे सब दोहे
रहिमन ज्यो उत्तम प्रकृति का कर सकत कुसंग । सस्कृत पद्योपरसे ही स्वकीय योग्यतानसार अनूदित किये
चन्दन विष ब्यापै नही लिपटे रहत भुजंग। रहीम गये है । जैसा कि उनके निम्न उद्धरणोसे स्पष्ट है:
दुर्जन सज्जन होत नहि राखो तीरथ बास । "महाराज महावृक्षकी, सुखदा शीतल छाय ।
मेलो क्यों न कपूरमै हीग न होय सुवास ॥ बुषजन सेवत फल भासै न तो, छाया तो रहि जाय ॥ बुधजन
नीच निचाई नहिं तज, जो पावै सत्सग ॥ "सेवितव्यो महावृक्ष., फलच्छाया समन्वितः ।
तुलसी चन्दन विटपिवसि विष हि तजत भुजग । तुलसी यदि दैवात् फले नास्ति छाया केन निवार्यत.॥हितोपदेश
करि सचित कोरो रहे, मूरख विलसि न खाय । "पर उपदेश करन निपुन, ते तो लखे अनेक ।
माखी कर मंडित रचे, शहद भील ले जाय । बुधजन कर समिक बोल समिक, ते हजारमें एक "॥ बुधजन खाये न खरच सूम धन, चौर सबै ले जाय । . "परोपदेशे पांडित्य, सर्वेषा सुकर नृणाम् ।
पीछ ज्यों मधु मक्षिका, हाथ मले पछताय । वृन्द धर्मे स्वीयमनुष्ठानं, कस्य चित्तु महात्मन : ॥ हितो.
दुष्ट कही सुनि चुप रह्यो, बोले बै है हान । "मिनख जनम ले ना किया, धर्म न अर्थ न काम ।
भाटा मारे कीचमे, छोटे लागै आन ॥ बुधजन सो कुच अजके कंठमें, उपजे गए निकाम ॥" बुधजन
कछु कहि नीच न छेड़िये, भलो न वाको सग । "धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्यैकोपि न विद्यते । पाथर डारघो कीचमें, उछरि विगार अंग ॥" बन्द अजागलस्तनस्यैव, तस्य जन्म निरर्थकम् ॥" हितोप०
आत्म कर्तव्यका भान कराने वाले कविवरके निम्न "नदी नखी शृगीनिमें शस्त्र पानि नर नारि । दोहे खास तौरसे मनन करने योग्य है जो आत्म-बोषके साथ बालक अरु राजानढिग, वसिए जतन विचारि॥' बधजन वस्तुस्थितिके निदर्शक तथा वैराग्योत्पादक भी है:"नदीनां शस्त्रपाणीनां नखीनां शृंगिणां तथा । धंधा करता फिरत है, करत न अपना काज । विश्वासो नैव कर्तव्यः स्त्रीषु राजकुलेषु च ॥' हितो. घरकी मुंपरी जरत है, पर घर करत इलाज।