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________________ २४६ मनेकान्त [वर्ष ११ इस ग्रंथको किसीकी प्रेरणासे नहीं बनाया है किन्तु अपनी बुद्धिकी प्रेरणासे स्वयं ही रचा है । कविवरकी दूसरी रचना 'तस्वार्थबोध' है जो एक पद्यबद्ध ग्रंथ है। इसमें गुडपिच्छाचार्यके 'तत्त्वार्थसून के सूत्रविषयका पल्लवित अनुवाद दिया हुआ है। इसके सिवाय ग्रंथ में १४ गुणस्थानोंका विशद वरूप, पल्य, सागर, राजू का प्रमाण, मध्यलोकका वर्णन, १४ मार्गणाओं की चर्चा, श्रावकों षट् आवश्यक कार्य, दशधर्म द्वादशतम, वाईस परिषद्, अठारह हजार शोलके भेद और सत्सख्यादि कितने दिवस बीते तुम्हें करते क्यों न विचार | काल गगा आय कर, सुनि है कौन पुकार ॥ जो जीए तो क्या किया मूए तो क्या दिया खोय । कारे लगी अनादिकी, देह तर्ज नहि कोय ॥ तर्ज देहसौं नेह भर, मानं लोटा संग । नहि पो सोलत रहे, तब तू होय निसंग ॥ तन तो कारागार है, सुत परिकर रखवार । यों जाने भानं न दुख, मानं हितू गंवार ॥ या वीरध संसारमें, मुबो अनन्ती बार । एक बार ज्ञानी मरं, मरं न दूजी बार ॥ मन तुरंग चंचल प्रबल बाग हाथमें राचि । जा छिन ही गाफिल रह्यो, ता छिन डारै नाखि ॥ चाह करं सो न मिलें, चाह समान न पाप । चाह रखे चाकर करें, चाह विना प्रभु आप ॥ परमारथका गुरु हितू स्वारथका संसार । सब मिल मोह बढ़ात हैं, सुत तिम फिकर यार ॥ तीरथ तीरथ क्यों फिर, नीरथ तो घट मांहि । जो थिर हुए सो तिरगए, अधिर तिरत है नांहि । अपने आप बिगाड़ते निवचं लागत पाप । पर अकाज तो हो नहीं, होत कलंकी आप ॥ को है सुत को है तिया, काको धन परिवार । आके मिले सरायमें, बिरंगे निरधार ॥ परी रहेगी संपदा, घरी रहेगी काय I छलबल करि क्यों तू न बचे, काल झपट ले जाय ॥ देहधारी बचता नही, सोच न करिए भ्रात । तनती त गे रामसे, रावनकी कहा बात ! आया सोनांही रहथा, दशरथ लछमन राम । तूं कैसे रह जायगा, झूठ पापका धाम ॥ करना क्या करता कहा, धरता नांहि विचार । पूंजी खोई गांठकी, उल्टी खाई मार ॥ और भी कितने ही दोहे पाठकोंके अवलोकनार्थ दिये जा सकते थे, परन्तु विस्तार भयसे उन सबको छोड़ा जाता है। ऊपरके इन कतिपय उद्धरणोंसे पाठक उसकी महत्ताका मान कर सकते हैं कविवरने इस सतसई पंचको सं. १८७९ में जयपुरके राजा जयसिंह तृतीयके राज्यकालमें बना कर समाप्त किया है। पंच कर्ताने १ संवत् डारासे भी एक बरस से पाट उपेष्ट कृष्ण रवि अष्टमी हूबो सतसई पाठ ॥ रणाओंका सुन्दर कथन दिया हुआ है। इस ग्रंथको भी कविने सं. १८८९ में राजा जयसिंह राज्यमें बनाकर पूर्ण किया है ।" तत्त्वार्थं बोधसे यहां सिर्फ चतुर्थं गुणस्थानका संक्षिप्त स्वरूप पाठकोंकी जानकारीके लिये दिया जा रहा है: जो निज आतम अनुभने तन-तुष-माव पिछान । उदासीन घरमें वसं, सो चौथा गुनथान ॥ २१ ॥ सात तत्त्व पट् द्रस्यको गुन-परजाय विधान । जैसा भाष्या केवली, तिसा करं सरघान ॥२२॥ सूतो जीव मनादिको मोहनीदमें दीन । कर्मशत्रु धन लूटकं, करो संपदाहीन ॥ २३॥ जागे गुरउपदेशते, मोहनीद तजि जीव । पानशने कर्मनिर्ज, सपति रहे सदीव ||२४|| विषयविरेचन औषधी, श्रीजिनवचन प्रमाण । जन्म- जरा दुख दाघहर, शिव-सुखदायक जान ॥ अनंत चतुष्टयका धनी, मदिरा मोह सवादि । रंक भया चिद दुख सह, निजधन करं न यादि ॥ रहिये जा सग जाहिसों, आदि अन्त सुख भोग । आदि अन्त सुखमय सदा, परसंग तजिवे जोग ॥ जरं मरे फार्ट गेरे, नव जीरनता वानि । बरं मरे नहि जीव मे दुखी पराई हानि ॥ हानि बुद्धिके योगमें, दुखी मुखी मतिमान | जो बोया सो ही मिले निज प्रापति उनमान ॥ जो अलाभ भी सामसिर बंधो सो मिलई आय । कर्म जो है पति जिसी, नाही देत गिराय ॥ उस समय जयपुरमें जयसिंह तृतीयका राज्य था, जो जगतसिंह पुत्र थे और वे तब चार-पांच बरसके थे। उनकी माता उस समय राज्यकी अधिकारिणी थी। जयसिंह की सन् १८३४ वि. सं. १८७१ में मृत्यु हो गयी थी ।
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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