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अनेकान्त
[वर्ष ११
एकताके कारण हेमालन! तू मनन्तकालसे दुःखका के सच्चे शिवधामकी प्राप्ति हो, जो तेरी चिर अभिलाषा पात्र बना हुआ है। इस एकतासे तेरा कैसे छुटकारा हो, का विषय रहा है। इन सब विचारोंसे कविवरका आत्महितजिससे यह भव-फांसी कट कर गिर जाय और तू स्वयं का लक्ष्य और भी दृढ़ हो गया, और वे सबसे उदासीन आतमराममें लीन हो जाय, तुझे उसी बलकी आव- होकर आत्मसाधनाके कार्यमें जुट गये।। श्यकता है। -"हूँ तो बुधजन ज्ञाता दृष्टा, ज्ञाता तनजड़ अब कविवरका जीवन, जो कभी आत्महितकी विचारसरवानी। वे ही अविचल सुखी रहेंगे होंय मुक्तिवर प्रानी।" तरंगोंमें उछला करता था, वह उस ज्ञायक आत्मस्वरूपमें यद्यपि मैं ज्ञाता दृष्टा हूँ, फिर भी मोहकी यह वासना अनन्त स्थिरता पानेका अधिकारी हो गया, इसके लिये उन्हें संसारका कारण है, उस अनन्त संसारका छेदन करना काफी पुरुषार्थ कर ध्यानका अभ्यास करना पड़ा, ही आत्मकर्तव्य है।
पर इससे उनके चित्तकी प्रसन्नता और संतोषमें भारी वृद्धि पर जब मैं अपनी पूर्व परिस्थितिका चिन्तन करता हूं हई, जो आत्मसाधनामें सहायक है। एक दिन कविवर और संसारको विचित्र दशाका स्मरण करता हूं तब मेरी ध्यानमें बैठे हुए कुछ गुनगुनाते हुए कहते है:जो दशा बनती है उसे शब्दों द्वारा व्यक्त करना संभव प्रतीत
मै देखे आतम रामा ॥ नहीं होता, और न वह वचनोंसे कही ही जा सकती है। "रूप परस रस गंधते न्यारा, दरश ज्ञान गुन धामा। उसका स्मरण करना भी मेरे अनन्त दुःखोंका कारण है । नित्य निरंजन जाके नाही, क्रोध-लोभ मद कामा ॥१॥ इसी बातका विचार करते हुए कविवर कहते है:
नहि साहिब नहि चाकर भाई, नही तात नही मामा ॥२॥ • "उत्तमनरभव पायकै मति भूल रे रामा ॥ भूल अनादि थकी जग भटकत, ले पुद्गलका जामा । कीट पशुका तन जब पाया, तब तू रहा निकामा । बुधजन संगति गुरुको कीयें, मै पाया मुझ ठामा ॥३॥ अब नर देही पाय सयाने क्यों न भज प्रभु नामा ॥१॥ इस तरह कविवर आत्मरसमें विभोर हो शरीरको सुरपति याकी चाह करत वर, कब पाऊं नर जामा। पुद्गलका जामा समझकर सुगुरुको संगति अथवा कृपासे भूख-प्यास सुख दुख नहि जाके, नाहीं वन पुर गामा। अपनी निधिको पा गये। ऐसा रता पायके भई, क्यों खोवत धिन कामा ॥२॥ रचनाएँ धनजीवन तन सुन्दर पाया, मगन भया लखि भामा।
इस समय कविवरकी मुझे चार रचनाओंका पता काल अचानक झटक खायगा, पडे रहेंगे ठामा ॥३॥
चला है । बुवजन सतसई, तत्त्वार्थबोध, बुधजन विलास अपने स्वामीके पद पंकज, धरो हिये विसरामा ।
और पंचास्तिकायका पद्यानुवाद। इन ग्रंथोमसे पंचास्तिकाय'मेटि कपट-भ्रम अपना'बधजन' ज्यों पावो शिवधामा॥४॥" कोबोटकाखतीन रचनाओंको देखा है और उनपरसे
अतः हे बुधजन ! अब अधिक चिन्तन और विचार करने कुछ नोट्स भी लिये थे। पंचास्तिकायकी रचना संभवतः से तेरा कुछ भी सुधार नहीं हो सकता, पशु पर्यायमें तू निकामा जयपुरमें ही किसी प्रथभंडारमें होगी, इसीसे उसे देखनेका ही रहा-आत्महितसे दूर रहा, और नरतनरूपी हीरा सौभाग्य अभी तक प्राप्त नहीं हो सका है। पाकर, जिसे देवेंद्र भी पानेकी अभिलाषा करता है, तू उसे १ बुधजन सतसई-यह अथ सातसौ दोहोंमें रचा व्यर्थ खो रहा है। कर्मोदयसे जो तुझे धन, यौवन और सुन्दर गया है । इसमें चार प्रकरण है-देवानुराग शतक, सुभाषितशरीर मिला है उसे पाकर भामा (स्त्री) में क्यो मग्न नीति, उपदेशाधिकार और विराग भावना । इस ग्रंथके हुआ है। गुरु बार बार पुकार कर कह रहे हैं-हे आत्मन् ! उक्त प्रकरणोंका अध्ययन करनेसे अथकी महत्ता और पंच इन्द्रियोंके यह विषय बड़े ही घातक हैं, इन्हें छोड़, अन्यथा कविकी प्रतिमा एवं अनुभूतिका सहज परिचय मिल जाता काल अचानक आकर तुझे खा जायगा, और कर्मोदयजनित है। परन्तु खेद इस बातका होता है कि इतने सुन्दर अथका यह सब ठोट पड़ा रह जायगा, तेरा मनका विचार मनमें समाजमें कोई प्रचार ही नही है। और न उसक, तुलनात्मक ही रह जायगा, फिर कुछ न कर सकनेके कारण केवल अध्ययन द्वारा कोई महत्त्वका आधुनिक संस्करण ही पछतावा तेरे हाथ रह जायगा । अतः अब तू अपना अन्तर निकाला गया है, जिससे वह साहित्यसंसारमें अध्ययनकी कपट रूपी भ्रम मैट, और अपने हितकी और देख, जिससे वस्तु बनता। .