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कविवर बुधजन और उनकी रचनाएं
(पं० परमानन्द जैन शास्त्री) कविवर वधीचन्द या बुधजन जयपुर निवासी से भरना असंभव-सा हो गया है । शारीरिक और मानसिक निहालचन्दजीके तृतीय पुत्र थे। आपकी जाति खंडेल- अना वेदनाएं तुझे चैन नही लेने देतीं, फिर भी तू अपनेको बाल और गोत्र 'बज' था। आपको रुचि बालकपनसे स्वभा- सुखी समझनेका यत्न करता है, यही तेरी अज्ञानता है, वतः जैनधर्मके ग्रंथोंके अध्ययन और जिनेंद्रकी भक्ति दूसरोंको उपदेश देता फिरता है-हितकी बातें सुझाता में आकृष्ट होती थी । आप बड़े ही धर्मात्मा सज्जन थे। है, पर स्वयं अहितके मार्गमें चल रहा है। इस तरह तेरा आपने लौकिक शिक्षणके साथ धार्मिक प्रयोका भी अच्छा कल्याण कैसे हो सकता है ? इसका स्वयं विचार कर अभ्यास किया था। और बादको स्वाध्याय एव सत्संग द्वारा और अपने हितके मार्गमें लग, इसीमें तेरी भलाई है। अप अपने ज्ञानको बराबर वृद्धि करते रहे है । आपकी जिनेंद्र ही तारन तरन है, इसीसे मैने अब उन्हींकी शरण जिनेंद्रभक्ति प्रसिद्ध है, वह सप्राण और निष्काम थी। उसमें ग्रहण की है। इस तरह मनमें कुछ गुन-गुनाते हुए कवि कविको आन्तरिक श्रद्धा अथवा आस्था ही प्रबल कारण जान वर एक दिन बोल उठेपड़ती है। इसीसे वह अपने सात्विकरूपको लिये हुए “सरन गही मै तेरो, जग जीवनि जिनराज ।। थी। आपके भक्तिपूर्ण पद इसी भावको द्योतित करते हैं। जगतपति तारन तरन, करन पावन जग, हरन-कर. इसी भक्ति-भावनासे प्रेरित होकर आपने जयपुरमें द जिन
भव-फेरी ।। मन्दिरोंका निर्माग करवाया था जो आज भी वहां मौजूद है
ढूढत फिरपो भरघो नाना दुख, कहू न मिली सुख सेरी। और जिनमें जाकर भक्त जन पुण्यार्जनके साथ पापके विनाश
यात तजी आनकी सेवा, सेवा रावरी हेरी ॥ का बम कर आत्मपरिणतिको निर्मल बनानेका प्रयास करते
परमें मगन विसारयो आतम, घरपो भरम जग केरी । है। कविवरने अपने गृहस्थजीवन और गुरु आदिका कोई
ए मति तजू भजू परमातम, सो बुधि की मेरी ॥" परिचय नही दिया, जिससे उसका यथेष्ट परिचय मिल
एक दूसरे दिन जिन चरणोंमें अडोल श्रद्धाको और जाता ।
भी निर्मल बनाने के हेतु, अपनी आत्म कहानी कहते हुए कविवर जहां धर्मनिष्ठ कवि, दयालु थे, वहां अध्यात्म- तथा मोहरूपी फांसीको काटकर अविचल सुख प्राप्त करने शा के भी वेत्ता थे। वे कभी कभी भक्ति रसकी सरस धारा- तथा केवल ज्ञानी बननेकी अपनी भावनाको व्यक्त करते में निमग्न हो इस बातका विचार किया करते थे कि हे हुए कविवर कहते है:बुधजन! तूने जिनेन्द्रके भजन अथवा आत्मदेवके आराधन मेरी अरज कहानी सुनिये केवल ज्ञानी । विना ही अपने मानव जीवनको यों ही गंवा दिया, चेतनके संग जड़ पुद्गल मिल, मेरी बुधि बोरानी ॥१॥
और जो कुछ रहा है वह भी बोता जा रहा है। पानी आनेसे भवन माहीं फेरत मोकू, लखि चौरासी थानी । पहले 1: (बांध)न बाधी फिर पीछे पछताने से क्या लाभ को तू वरनू तुम सब जानू-जन्म मरण दुख खानी॥२॥ हो सकता है। जप, तप, संयमका कभी ने आचरण नहीं भाग भले ते मिले बुधजनकू, तुम जिनवर सुखदानी किया, न किसोको दान हो दिया-किंतु धन और रामाकी मोहि-फांसिका काटि प्रभुजी की केवल शानी ॥३॥ सार सम्हाल करते हुए उन्होके आशाजालमें बध कर ही तूने कविवर सोचते हैं कि हे बुधजन ! तूने मूढ अज्ञानी बन इस मानव-जीवनको हराया है। अब तू वृद्ध हो गया । शरीर कर तनिक-से विषम सुखकी लालसामें अनन्त काल यों ही
और शिर तेग कंपने लगा, दांत भी चलाचल हो रहे हैं- बिता दिया, अनादि कालसे जड़ चेतनाका यह मेल बंध वेएरक करके विदा लेते जा रहे हैं। चलना-फिरना भी अथवा एक जगह रहना इस तरह इन दोनों की एकता, अब किसी लाठीके अवलम्बन बिना नहीं हो सकता। जिस तरहको एकता दूध और पानीमें पाई जाती है, जो दोनों आशापी कांसा तेरा इतना विस्तृत हो गया है कि उसका भिन्न भिन्न स्वरूपका भान नहीं होने देती । इसी मिया
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