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________________ पूज्य श्री वर्णी गणेशप्रसादजीका एक आध्यात्मिक पत्र (श्रीमान् ला• जिनेन्द्रकिशोरजी जोहरी देहलीके सौजन्यसे प्राप्त) श्रीमहानुभाव लाला जिनेन्द्रकिशोरजी झवेरी, योग्य होता है जैसे घटादि पदार्थके द्वारा दीपकमें कोई दर्शन विशुद्धिः विक्रिया नहीं होती। घटके अस्तित्वमें दीपक स्वस्वरूपपत्र पाकर अति प्रसन्नता हुई-आत्माकी परिणतिकी से ही प्रकाशमान हो रहा है एवं ज्ञान भी शेयके सद्भावमें निर्मलता ही तो इसको संसारसमुद्रसे उत्तीर्ण करती है, जैसे स्वरूप रूपसे प्रकाशित हो रहा है एवं ज्ञेयके अभावजिस जीवका मोह गया वह संसारबंवनसे उसी समय मुक्त में मी स्वरूपसे प्रकाशमान हो रहा है-फिर भी जीव अपनी हो गया। संसारको मूल कारण यही तो है आत्मा तो निरंजन अज्ञानतासे निज उदासीनताको त्यागकर नाना यातनाओंका प्रतिसे परबोध स्वरूप है इतने काल जो संसारमें भ्रमण पात्र होता है-अत: जिसने इस पर विजय प्राप्त कर ली कर रहा है मोह ही की तो विडम्बना है-वही कहा है:- वही कल्याणका पात्र है-आपके पत्रसे यह बात समझमें अहो निरंजनः शान्तो बोधोहं प्रकृतिपरः । आती है जो आपकी श्रद्धा दृढ़ है वही आपका कल्याण करेगीएतावन्तमह कालं मोहेनैव विडम्बितः ॥ चिन्ताकी बात नही-शारीरिक अव्यवस्था काल पाकर स्वयसंसारको जड़ मोह ही है इसके अभावमें अनायास मेव शान्त हो जावेगी। अथवा हम अपनी परिणतिको संसार चला जाता है-संसार अन्य कोई पदार्थ नही, आत्मा क्यो न देखें उसमें जो दोष हों उन्हे दूर करनेका प्रयास की विकार परिणति ही का नाम तो संसार है-यद्यपि उस करना ही हमारा कर्तव्य होना चाहिये। विकार परिणतिके उपावान कारण हम ही तो है । ज्ञेय वैशाख सुदि १० पदार्थ विकारी नहीं-वह तो निमित्तमात्र है-आत्माका मा० शुचि शाब जो है वह जेयके निमित्तसे कोई विकारको नही प्राप्त सं० २००९ गणेश वर्णी अनेकान्तकी सहायताका सदुपयोग 'अनेकान्त' को जो सहायता विवाहादिके अवसरोंपर प्राप्त होती है उसका बहुत अच्छा सदुपयोग किया जाता है। इस सहायतासे जैनेतर विद्वानों, लायब्रेरियों, गरीब विद्यार्थियों तथा असमर्थ जैन संस्थाओंको 'अनेकान्त' बिना मूल्य अथवा रियायती मूल्य ३) में भेजा जाता है। इससे दातारोंको दोहरा लाभ होता है-इधर वे अनेकान्तके सहायक बन कर पुण्य तथा यशका अर्जन करते हैं और उधर उन दूसरे सज्जनोंके ज्ञानार्जनमें सहायक होते हैं जिन्हें यह पत्र उनकी सहायतासे पढ़नेको मिलता है। अतः इस दृष्टिसे अनेकान्तको सहायता भेजने-भिजवाने की ओर समाजका बराबर लक्ष्य रहना चाहिये और कोई भी अवसर इसके लिये चूकना नहीं चाहिये। अनेकान्तकी सहायताके मार्गोको टाइटिलके दूसरे पृष्ठ पर देखिये। -व्यवस्थापक 'अनेकान्त'
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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