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कविवर पं० दौलतरामजी
( पं० परमानन्द जैन शास्त्री ) कविवर पं० दौलतरामजीका जन्म संवत् १८५० या तत्त्वचिंतन, सामायिक और सिद्धान्तशास्त्रोंके स्वाध्याय १८५५ के मध्यवर्ती समयमें सासनी जि. हाथरसमें हुआ जैसे प्रशस्त कार्यों में व्यतीत करने लगे। था। आपके पिताका नाम 'टोडरमल्ल' था । आपकी जाति आपका सैद्धान्तिक ज्ञान बढा चढ़ा था और आपको पल्लीवाल या पालीवाल थी और गोत्र था गंगीरीवाल; तत्त्वचर्चा करनेमें खूब रस आता था, वस्तुत्वका विवेचन परन्तु आप 'फतहपुरिया' नाम से उल्लेखित किये जाते थे। करते हुए उनका हृदय प्रमोदभावनासे परिपूर्ण हो जाता आपका विवाह सेठ चिन्तामणिजी अलीगढ़की सुपुत्रीके था। बीचमें श्रोताओके प्रश्न होनेपर उनका उत्तर बड़ी साथ हुआ था, उससे आपके दो पुत्र भी हुए थे। जिनका ही प्रसन्नताके साथ देते थे, श्रोताजन उनके सन्तोषजनक जन्म संवत् १८८२ और १८८६ में हुआ था। उनमें बड़े पुत्र- उत्तरोको सुनकर हर्षित होते थे और उनकी मधुरवानीका का नाम टीकाराम था और जो कुछ समय पहले लश्कर पान बड़ी भक्ति और श्रद्धाके साथ करते थे । आपने वस्तुमें रहते थे। और छोटा पुत्र असमय में ही अपनी स्त्री और तत्त्वका मंथन कर उसमे से जो नवनीत रूप सार अथवा एक पुत्रीको छोड़कर परलोकवासी हो गया था। थोड़े दिन पीयूष निकाला उसका अनुभव आपकी सं० १८९१ में बजाजीका कार्य हाथरसमें करनेके बाद कर्मोदयवश आप रची जानेवाली एक छोटी-सी कृति छहढाला से ही हो जाता अलीगढ़में रहने लगे थे। सं० १८८२ या ८३ में मथुराके है। इस ग्रंथका परिचय आगे दिया जायगा। सुप्रसिद्ध सेठ राजा लक्ष्मणदासजी सी. आई. के पिता सेठ आपने अपने जीवनको आध्यात्मिक सांचे में ढालनेमनीरामजी पं० चंपालालजीके साथ कारणवश हाथरस गये, का प्रयत्ल किया। आध्यात्मिक ग्रन्थोंके अध्ययन मनन एवं वहां उन्होंने मन्दिरजीमें कविवरको मोम्मटसारकी परिशीलनसे आपका जीवन ही बदल गया, उसमें नवचेतनास्वाध्याय करते हुए देखकर बहुत ही खुश हुए और उन्हे का जागरण हुआ और उसके धुंधले प्रकाशमें वे अपनी अपने साथ मथुरा ले आए और वहां उन्हें बहुत आदरके भूली हुई उस आत्मनिधिका दर्शन पानेके लिए उत्कंठित साथ रक्खा; परन्तु पडितजीको वह भोगोपभोग सम्पदा होने लगे। समता भावोंका चयन करनेके साथ वे शारीरिक भरुचिकर प्रतीत हुई, फलस्वरूप वे कुछ दिन बाद वहासे चेष्टाओंको केन्द्रित कर मन और वचनको भी जीतने एवं लश्कर और बादको सासनी अपनी जन्मभूमिमें आ गए। वशम करनेके सुदृढ़ प्रयत्नमें लग गए । आत्मनिन्दा और और सासनी से अलीगढ़ आकर छीटें छापनेका कार्य करने गहस्के साथ वे आत्मनिरीक्षण करनेका प्रयत्न करते थे लगे । छमाईका काम करते हुए भी आप अपने विद्याभ्यास और उससे ज्ञात दोषोकी तरफ दृष्टि डालते तथा उनके का अनुराग कम न कर सके, और चौकी पर जैनसिद्धान्त- शोधनके साथ-साथ भविष्यमें उनसे वचनेका बुद्धिपूर्वक के ग्रंथ रखकर छपाईका काम करते हुए भी ५० या ६० पूरा-प्रयत्न भी करते थे। कभी २ एकान्त स्थानमें बैठकर पद्य रोजाना कण्ठस्थ कर लेना आपका दैनिक कर्तव्य था। वस्तुस्थितिका विचार करते समय शरीरके स्वरूपपर आप संस्कृतके अच्छे विद्वान् थे और आपमें विवेक था तथा दृष्टि डालते और विचारते कि यह शरीर घिनावना हैजैनसिद्धान्तके परिज्ञानकी थी बलवती भावना उस समय मलसे पूरित है, जड़ है, माता पिताके रज और वीर्यसे आपके कुछ पूर्वकृत कर्मका अशुभोदय था जिसे आपने निष्पन्न होने वाली मल फुलवारी है । हाड़ मांस और नसाविवेक और धैर्यके साथ सहा। कुछ दिनोंके पश्चात् पंडितजी जालकी रक्तरंजित लाल क्यारी है, चर्मसे मढ़ी होनेके अलीगढ़से देहली आ गए और देहलीमें साधर्मीवात्सल्य कारण ऊपर से सुन्दर-सी प्रतीत होती हैं। परन्तु धन प्रेमी सज्जनोंकी गोष्ठीको पाकर अपना अधिकांश समय और धर्म चुराने वाली है, स्वेद ( पसीना) मेव