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फिरण]
(चरबी) और कफको और कफको बहुत दुःखदायी तथा मदरोग-रूपी सर्पको पिटारी है। जितनी जितनी चन्दनादि पावन वस्तुओंका इससे सम्पर्क एवं संयोग हुआ उन सबको इसने अपवित्र और विकृत बनाया है। जबतक इस अशुचिशरीरका संयोग रहता है तबतक यह बात्मा संसाररूपी रोगसे ग्रसित रहता है । और आशा पाशमें बन्धकर अपनेको कर्म बन्धन से बांधनेका प्रयत्न करता रहता है । और जिस तरह मकड़ी अपने ही मुंहसे निकले तन्तुजालसे बन्धकर अपने प्राणोंको भी खो बैठती है । किन्तु जब इस शरीरका सर्वथा वियोग हो जाता है--ध्यानादिके द्वारा जब आत्मा जन्म मरणादिरूप विषमदोषों को जला देता है, उनका आत्मासे ऐसा आत्यन्तिक विछोह कर देता है कि फिर वे भविष्य में उस ओर झांक भी न सकें-तब आत्मा अपने स्वरूपको पा लेता है। इसी कारण विद्वान लोग उससे ममता नही करते ; किन्तु वह मूढ पुरुषोंको प्यारी लगती है--वे रातदिन उसको ही पुष्ट करने और उसे साफ सुथरा बनाने के प्रयत्न में लगे रहते है वे अपने स्वरूप की ओर कभी दृष्टि पसार कर भी नही देखते। जिन जीवोंने इस शरीरको ही पुष्ट करनेका प्रयत्न किया है--उसीकी सेवामें अपना सर्वस्व अर्पण किया है वे ही दोषी हुए और उन्होंने ही भव-परम्पराके अनेक असह्य कष्ट भोगे और भोग रहे हैं। परन्तु जिन विवेकी पुरुषोंने इस जड़ शरीरके रहस्यको जान कर तपश्चर्या और आत्मध्यानके द्वारा उसका शोषण किया है उन्होने ही स्वात्मोपलब्धिरूप अमृतका पान किया है और कर रहे है इस तरह कविवर अपने शरीरकी स्थितिका विचार करते हुए और अपनेको सम्बोधित करते हुए कहते है कि हे दौलतराम यह शरीर इन्द्रधनुष, शरदऋतुके बादल, और पानीके बुलबुलेके समान शीघ्र ही विनष्ट होने वाला है तू इस शरीरसे अपनी चैतन्य आत्माको भिन्न जानकर समताका धारी बन—स्व-पर-वैरी राग-द्वेष रूप विभाव भावोंका परित्यागकर जो तेरी आत्मनिषिके घातक हैं।
कविवर पं० दौलतरामजी
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अन्य किसी दिन आत्मस्वरूप पर दृष्टि डालते हुए पंचेद्वियोंके विषय और उन विषयोंत होने वाली रतिसे हानिका विचार कर उनसे विरक्तिद्वारा आत्मरसके आस्वादन की महिमाका ध्यान करते हुए एवं अपनेको समझाते हुए मनमें कुछ गुनगुनाते हुए कविवर कहते है
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"अव अद्भुत पुण्य उपारो, कुलजात विमल तू पायो । बातें सुन सोख सयाने, विवयनिसा रति मत ठारे ॥ जाने कहा रति विश्वमें ये विश्म-विषधर समो यह देह मरत अनन्त इनको स्याग आतम-रस पत्र । या रस रसिक जन वसे शिव अब बरें पुनि बसि हैं सही ॥ 'दौल' स्वरचि पर विरचि सतगुरु शील उर मित पर यही ।। हे दौलतराम ने महापुष्यसे उत्तम कुल और उच्च जातिमें जन्म लिया है। कर्मोदयसे शरीरको सुख कर सातारूप सामग्रीका भी तुझे लाभ हुआ है, और पंचेन्द्रियों के विषयोंके योग्य भोग्य सामग्रीका संयोग भी मिला है । यद्यपि तू चतुर है परन्तु तो भी तू उनमें संलग्न होकर कदाचित् अपनेको न भूल जाय, अतः यह सीख सुनो, पंचेन्द्रियोंके विषयोंमें रति मत करो, क्योंकि ये विषय विषम विषधरके समान है-- विषधरके उसनेसे इस शरीरका एक बार नाश होता है किंतु इनके सेवनसे इस शरीरका अनन्त बार विनाश होता है । अतः तेरी भलाई इसीमें है कि तू इनका त्याग कर निजात्म-स्वरूपका वह अद्भुत रस चख । जिस स्वानुभवरूप रसके रसिक जन कर्म कलंक रूप 'अन्तर' बाह्य कालिमाको जलाते हैं-विनष्ट करते हैं और स्वरूपको प्राप्त करते हैं-मुक्तिके अधिकारी बनते हैं। बने हैं, और बनेंगे। अतएव त् पर रतिका त्यागकर स्वरूपानुभव मे रति कर -- निजात्माके ध्यान द्वारा स्व-परका स्वामी वन यही सत् गुरुकी सीख है जिसे तू सदा हृदयमे धारण कर । तू अपने दिलकी कपाटी खोल, और अपने शायक भावकी ओर देख तेरा स्वरूप कर्मको दलदलसे लिप्त है यह विकृत और अशान्त हो रहा है उससे निकलनेके लिये छटपटा रहा है। तू ज्ञानी होकर और बड़ी कठिनतासे इस मानव जन्मको जिनधर्मको पावन गंगामें अवगाहन किये बिना ही विषयोंकी लालसामें खो रहा है जिस तरह मणिके अमूल्य मूल्यको न समझ कर कोई मूर्ख उसे समुद्रमें डाल कर पीछेसे पश्चात्ताप करता है रोता और विलाप करता है; परन्तु वह मणि पुनः हाथमें नही माता उसी तरह यदि ने भी यह नर भव यों ही खो दिया, सम्यग्दर्शन रूप मणिको प्राप्त नहीं किया, तो तुझे भी केवल पश्चात्तापको बाहमें जलना और कष्ट उठाना होगा। फिर पछतानेसे क्या लाभ हो सकता है !
अन्य किसी दिन ध्यान मुद्रायें अवस्थित कविवर आत्मस्वरूपका चिन्तन करते हुए ज्ञानानन्दमय परमात्म