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________________ २५४ अमेकात [ ११ स्वकपका और उनके अनन्त गुणोंके विचारमें निमग्न हुए इधर-उधर घूम रहा हूं अब मेरा क्या कर्तव्य है । इन गुणानुरागके बावेगको न रोक सके, और भक्ति-उद्रेकमें चक्षुरादि इंद्रियोंसे में जो कुछ भी देखता जानता हूं वह कह उठे। मेरा रूप नहीं, जो कुछ मुझे दीख रहा है वह सब पुद्गलका तुमबह पतित सुपावन कीने, क्यों न हरो भव संकट मेरे। परिकर है, परिणाम है और जड़ है, मै भूलसे उसे ही प्रम उराषिहरशम-समाधि, कर बोल भये तुमरे मवचेरे॥ आत्मा समझता था, मै चैतन्य द्रव्य हूं, और मेरा हे जिनेंद्र ! आपने कर्म समूहका नाश कर उस स्वभाव ज्ञाता-दृष्टा है। उनमें राग विरोध करना वीतराग निजानन्द निराकुल आनन्दको प्राप्त किया है। मेरा कार्य नही और न वह कभी मेरा स्वरूप हो ही सकता है। और अनन्त जीवोंको उस मार्गका पथिक बनाकर-आत्मा- मेरी आत्माके अहित करने वाले विषय और कषाय है। के वास्तविक चिदानन्द स्वरूपका भान कराकर भव दुःख- मै इनमें प्रवृत्ति करके ही दुःखका पात्र बना हूं। जब एक से उन्मुक्त किया है। जिन्होंने आपकी शरण ग्रहण की है, एक इन्द्रियके विषय प्राण घातक है तब पांचो इंद्रियोंके विषय उन्होंने जन्म जरा-मरण रूप भयंकर रोगोंका नाश कर किन-किन अनिष्टोंके जनक और दुख दाई न होंगे यह कल्पना अज-अजर और अमरता प्राप्त की है। और जिन्होने भी अमित दुखका कारण है' इसी तरह आत्माकी कल्मषआपकी शरण छोड़ दी है वे चतुर्गति रूप संसारमे भ्रमण करते परिणति संसार-व्याधिको बढा रही है। हुए महान् विपदाओंके पात्र बने है । आप ही ससारी जीवोके यह सकषाय परिणति ही कर्मबंधको सुदृढ़ और सरस हितैषी एवं अकारण बन्धु है दयालु है, अहिसा रूप परम- बनाती है जिससे मेरा आत्मा कर्मबंधनसे नही छूट बाकी पूर्ण प्रतिष्ठाको प्राप्त हुए है मुझे चिरकालमे विधि पाता। सासारिक विषय और यह कषायभाव ही बन्धकराल-काल रूपी काल घेरे हुए है, अतः आप मेरे दुखोंको परम्पराके जनक और अत्यन्त दुःखदायी है। मेरी ज्ञानरूपशीघ्र टालनेका प्रयत्न कीजिये । संशय विभ्रम और मोह रूप निधिके घातक है। अतः मै बुद्धिपूर्वक इनमें प्रवृत्त न होऊ त्रिदोषोंने मुझे संसार वनमे भटकाया है, दुखी किया है, इसी मे मेरा हित है। यदि कदाचित् बिना किसी प्रयत्नके और मै उन दोषोंकी कुसंगतिसे अपने स्वरूपको भूल गया हू ये विभाव भाव उदित भी हो जायें तो भी मै उनमें रागपर मै आत्माकी कल्पना करने लगा, राग-द्वेष रूप उपाधि- विरोध रूप प्रवृत्तिको जमनेका अवसर न दूं यही मेरा पुरुभावोंको अपना स्वरूप -समझ और मोहमदका पान कर पार्थ है। हे जिनेन्द्र यही मेरी बह वेदना है जो मुझे बेचैन किये पंचेंद्रियोंके विषयों में चिरकालसे मान रहा, और दुःखका पात्र देती है । अतःआप वह मुबुद्धि दीजिये अथवा आपके सानिध्यबनता रहा । आज मैं भाग्योदयसे आपका दर्शन पाकर से मेरी आत्मामे वह अत्मबल जाग्रत हो जिससे मै कर्मचिरकालके उस भारी सतापको भूल गया-मुझे भूली बन्धनसे उसी तरह अपनेको जुदा करनेमे समर्थ हो सकू हुई उस निज निधिका दर्शन हुआ, जिसे मैं असेंसे पानेका जिस तरह म्यानसे तलवार अलगकी जाती है। हे वीतराग इच्छुक था, मुझे अब यह निश्चय हो गया कि आप ही मेरे विज्ञानधन! भव दुःखसे उन्मुक्त करने में आप ही मेरे भवदुख मेटने में समर्थ है-जन्म-जरा-मरण रूपवेदनासे निमित्त कारण है आपकी वह प्रशान्त मुद्रा मुझे स्व-पर उन्मुक्त कर सकते है, अतः मुझे वह उपाय बतलाइये जिससे स्वरूपके पिछान करने में निमित्त हुई है । अब मेरी आत्मा में कर्मको उस महासेनाका दमन करने में समर्थ हो सकू। में शिवराहके लाभको आकांक्षा हुई है-मैं सम्यग्दर्शन, मुझे संसारके अन्य किसी वैभव और भव-सुखोकी बाछा नही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप आत्मनिधिके प्राप्त है, और न उस वाछाको आप पूरा ही कर सकते है । क्योंकि करनेका अभिलाषी हुआ हू-हिंसा और रागद्वेषादि रूप आप अकिंचन और वीतारागी है, कर्मजयी और समताके असयम भावोमें मेरा उत्साह क्षीण होता जा रहा है। सांसाआकार है मैने उनका अनन्त पर्यायोंमें उपभोग किया है, परन्तु रिक भोग भुजंगके समान दुःखद प्रतीत होते है। उनकी उनसे तृप्ति नहीं हुई। उल्टी मेरी तृष्णा बढ़ती ही गयी और अभिलाषा दूर करनेके लिए तो तीन लोककी संपदा भी मैं चाह-दाहकी भीषण ज्वालामें जलता रहा हू । अब मुझे थोड़ी है। जिन्होने उससे ममता तोड़ी, ही सुखी हुए हैं तुझे अपनी चिर भूलका पता चला है मैं कौन हूं क्या मेरा रूप भी सुखी होना है तो तू भी वही प्रयत्न कर । ध्यान और है, और मेरा स्थिर बास कहां है ! मै किस कारणसे समाधिके द्वारा कर्ममलको जलाने या नाश करनेका प्रयत्न
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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