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पिरल-1]
कविवर पं०ौलतरामजी
कर । ज्ञान और वैराग्य ही हितकारी हैं अब मुझे अपनी उस गहन तत्त्वोंका सरल एवं संक्षेपमें जो नवनीतामृतरूप सार आत्मनिधिका भान हो चुका है। इसीकारण मैने आपकी निकाला गया है वह हृदयस्पर्शी, और गम्भीर है तथा अन्तशरण ग्रहण की है आप जैसा संसारमें पतिततार नही सुना। स्तलको निर्मल ही नहीं बनाता, किन्तु वह समता और अतएव मेरी यही अरदास है कि मेरा फिर भववास न हो। आत्मकर्तव्यकी ओर भी आकृष्ट करता है। हे दौलतराम ! तू पुण्य पापके फलमें हर्ष-विषाद क्यो करता कविवर दौलतरामजीने तीसरी ढालके १५ वें छन्दमें है-क्षणमे रोता और क्षणमें हंसता है-निज कर्तव्यको अन्तरात्मा अविरतसम्यग्दृष्टिकी आत्म-परिणतिका उल्लेख क्यो नही संभालता और संयमरूपी जल लेकर अपने करते हुए लिखा है:-- कलिमलको क्यों नही धोता? इस तरह कविवर स्वरूप- दोष रहित गुण सहित सुषी जे, सम्यकदर्श सर्व है। चिंतन करते हुए अपनी आत्माको बार-बार सम्बोधित कर चरित मोहवश लेश न संजम, पै सुरनाथ जज हैं। स्वपरमें रहनेके लिए सावधान करते देखे जाते हैं। उनकी गेही पं गृहमें न र ज्यों जलमें भित्र कमल है। आध्यात्मिक पदावली उनकी निर्मल आत्मपरिणतिको नगरनारिको प्यार यथा का-ये में हेम अमल है ॥१५॥ अभिव्यंजक है। उन्होंने जो अपनी आत्मभावना व्यक्त की जो बुद्धिमान् पुरुष पच्चीस दोषोसे रहित और सम्यहै उसका निर्दशन निम्न पदसे होता है :--
कत्वके निःशंकत्वादि आठ गुण सहित सम्यग्दर्शनसे शोभायमेरे कब है है वा दिन को सु-घरी॥
मान है । यद्यपि चरित्र मोहनीय कर्मके उदयसे वह लेशमात्र तन विन बसन असन विन बनमें, निवसों नासादृष्टि परी भी सयम धारण नहीं करता-उसके संयम धारण करनेकी पुण्यपाप परसों कब विरचों, परचों निजनिषि चिर-विसरी। हृदयमें उत्कट भावनायें उदित होती रहती है परन्तु तो भी तज उपाधि सजि-सहज-समाधी, सहों धाम-हिममेघशरो।२ चरित्रमोहनीय की २१ प्रकृतियोंके उदयसे उसको आत्मकब थिर जोग घरों ऐसो मोहि, उपलजान मुग खाजहरी। परिणति मकानके ऊपर स्थित ध्वजाके समान चचल रहती ध्याम-कमान-तान अनुभव-शर, कादिन छेदों मोह अरो ॥३ है इसी कारण वह अपनी भावनाको मूर्तरूप देने में असमर्थ कब तण कंचन एक गिनों अरु, मणिजड़तालय लबरी । रहता है तो भी वह अपनी निर्दोष आत्मदृष्टिके कारण 'दौलत' सतगुरु चरन सेव जो, पुरवं आश मह हमरी ॥४ देवेन्द्रोंसे पूजित होता है। वह घरमे रहता हुआ भी जलमें
इस तरह कविका आध्यात्मिक पद संग्रह उनकी आन्त- कमलके समान अलग रहता है. उसमे उसका राग नही रिक- निर्मलता और आत्मानुभवको सरस भावनाका होता । घरमै उसका प्रेम नगरनारी (वेश्या). के समान प्रतीक है। आध्यात्मिकताका वह मधुररस उनके पद-पदमें होता है जिस तरह वेश्याका प्रेम पैसे पर होता है पुरुष समाया हुआ है। साथ मे देह-भोगोकी नि सारताको व्यक्त पर नही, इसी तरह सम्यग्दृष्टिका प्रेम अपनं आत्मलक्ष्यपर करते हुए निर्वेदभावनाका जनक है। उसे पढते ही आत्मा एक रहता है, गृहादि पर वस्तुओसे नही। अथवा कीचडमे पडा प्रकारके आनन्दमें लीन हो जाता है जो अनिर्वचनीय है। हुआ सोना जिस तरह निर्मल रहता है फिर उसमें कालिमा
आपकी दूसरी कृति छहढाला है जिसे पढ़कर पाठक का प्रवेश नही हो पाता, उसी तरह सम्यग्दृष्टि भी घरमें निजानन्दरसमे मग्न हो जाता है, उसका हृदय आनन्द-विभोर बसता हुआ भी उदासीन ही रहता है। हो उठता है और वह कुछ समयके लिए अपनेको सर्वथा चतुर्थ ढालमे कविने सम्यग्ज्ञानके महत्वको प्रकट करते भूल जाता है तथा अपने चिदानन्द स्वरूपका स्मरण आते हुए तत्त्व अभ्यासकी प्रेरणाके साथ ज्ञानके दोषोके त्यागका ही उसे जानने और प्राप्त करनेके प्रयत्नमें लग जाता है। सकेत करते हुए मनुष्य पर्याय उत्तम कुल और जिनवाणीकविवर दौलतरामजीने इस कृतिमें-छहढालो, चालो के श्रवनको 'सुमणि' ज्यो उदधि समानी' के समान दुर्लभ अथवा छन्दोंमें जीवकी चाह, चतुर्गतिके दुःख, उनका बतलाया है । साय ही कर्मोदयसे प्राप्त वैभव और राज्यादि कारण, सुखका स्वरूप और सुखप्राप्तिके कारणोंके साथ सामग्री आत्माके किसी काम नहीं आती किन्तु ज्ञान जब दुःखोसे छुटकारा पानेके उपाय-स्वरूप-सम्यग्दर्शन, सम्यर- अपने आत्मस्वरूपको पाकर निश्चल हो जाता है। अपने जान और सम्यक् चारित्ररूप श्रावक और मुनिधर्मका बड़ा ज्ञानस्वरूपमें ही रम जाता है । उस आत्मज्ञानका कारण ही सुन्दर एवं मार्मिक विवेचन किया है। जैनसिद्धान्तके स्व-परका विवेक है । उस विवेकज्ञान (भेदज्ञान) को करोड़