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उपाय बनाकर भी हृदयमें अवधारण करनेकी प्रेरणाकी और साहस कर यह सीख मानो कि जबतक तेरा जरारूपीहै क्योंकि जिन जीवोंने आत्मस्वतन्त्रता प्राप्त की है और रोग न आवे तबतक शीघ्र ही निजहित करो। यह जीव करेंगे वह सब भेदज्ञानसे ही प्राप्त हुई हैं। संसारके प्राणी रागरूपी आगमें सदा जल रहा है अतएव समतारूपी अमतविषयोंकी चाह रूपी आगमें जल रहे है उस चाह-दाहके का सेवन करना चाहिए, और चिरकालसे सेवन किये बुझानेका एकमात्र उपाय ज्ञान धन-धान' के सिवाय अन्य हुए विषय-कषायोंको छोड़कर अपने चिदानन्द टंकोनही है। यह अज्ञानी जीव पुण्य-पापके फलमें हर्ष-विषाद कीर्ण एक ज्ञायकभावका अनुभव कर । पर पदमें क्यों राग करता है । सो यह पुण्य-पाप पुद्गलकमको अवस्थाएं हैं वे कर रहा है, यह तेरा पद नहीं है तू किस लिए दुःख सहता है। कभी उत्पन्न होती और नष्ट हो जाती है-स्थिर नही रहतीं। हे दौलतराम ! अब तू सुखी हो और स्वपदमें रच-स्वस्वहे दौलतराम ! लाख बातकी यह बात है कि तुम संसारके रूपमें मग्न हो-यह दाव अथवा अवसर मत चक । सम्पूर्ण दंद-फंद (विकल्पजाल) को छोड़कर निरन्तर कविवरने सं० १९१० में माधवदी चतुर्दशीके दिन अपनी आत्माका ध्यान करो। इस तरह यह सारा ही ग्रन्थ गिरिराज सम्मेदशिखरजीको यात्रा कर अपने जीवनको जैनसिद्धान्तके गंभीर रहस्यका उद्भावक और हिन्दीकी सफल बनाया था, और उसकी स्मृतिमें एक पद भी बनाया भावपूर्ण कविताको लिए हुए है।।
था। भगवान पार्श्वनाथकी वंदना कर हृदयमें विचार किया अब कविवर अपनी आत्माको सम्बोधित करते हुए कि हे भगवान् । कब वह अवसर पाऊं जिस दिन मैं स्वस्वकहते हैं:
रूपका अनुभव कर पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त करूं। " 'बोल' समक्ष सुन चेत सयाने, काल व्या मत खोवे,
इस तरह कविवरने देहलीमें उसके बाद १०-१२ वर्ष यह नर भव फिर मिलन कठिन है, जो सम्यक् नहि होवे" ॥ और जीवनयापन किया। उनका जीवन बड़ा ही सीधा-सादा "मुख्योपचार दुभेव यों बड़भागि रत्नत्रय पर, और आडम्बरहीन था। दुनियाके भोगभाव उन्हें असुन्दर अब परंगे ते शिव लह तिन सुपश जल जगमल हरे ॥ प्रतीत होते थे। और प्रकृतिके प्रतिकूल पदार्थोके समागम इमिमानि मालसहानि साहसठानि यह सिख आदरो ।। होने पर भी उनमें उनकी अरुचि तो रहती ही थी। पर उसकी जबलोंमरोग जरा गहै, तबलों सटिति निज हित करी॥ चर्चा करना भी उन्हें इष्ट नहीं था। यह राग आग बह सदा तातें समामृत सेहये ।
कहते है कि कविवरको एक सप्ताह पहले अपनी मृत्युके चिर भजे विषय कवाय अब तो त्याग निजपद बेहये।
समयका परिज्ञान हो गया था, उसी समयसे उन्होंने अपना कहा रख्या पर पदमें न तेरो पर यह क्यों दुख सह ।
समय और भी धर्मसाधनमें बितानेका प्रयत्न किया और अब 'दौल' होऊ सुखी स्वपद रचि, दाव मत चूको यह ॥"
कुटुम्बियोंके प्रति रहा सहा मोह भी छोड़नेका प्रयास किया। हे दौलतराम ! तू चेत और अपने अमूल्य समयको
सं० १९२३ या २४ में ठीक मध्यान्हके पश्चात् इस नश्वरव्यर्थ मत खो, यदि इस जीवनमें सम्यकत्वको प्राप्ति नही हुई
शरीरका परित्याग कर देवलोकको प्राप्त किया। उसी दिन तो इस मानव पर्यायका मिलना कठिन है । जो पुण्यात्मा
गोम्मटसारका स्वाध्याय पूरा हुआ था। उन्होंने अपने जीव निश्चय-व्यवहार रूप रत्नत्रयको धारण करते है और
शरीरका त्याग महामत्रका जाप करते करते किया था। करेंगे वे मोक्ष पाते है और पावेंगे । उनका यशरूपी जल संसारमलको दूर करेगा, ऐसा जानकर आलसको छोड़कर
देहली, ता. ५-५-५२
सूचना-साहित्य परिचय और समालोचन अगली किरण में जावेगा-प्रकाशक