________________
जैन साधुजनोंके निष्क्रिय एकाकी
साधनाकी छेड़छाड़
(श्री दौलतराम 'मित्र') आजकल लोगोने एक रिवाज-सा बना लिया है कि "योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः। अपनेसे भिन्न प्रकारकी सेवा (भले ही वह अधिक उत्तम एकाकी यत् चित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥" हो) करनेवालोंको कुछ तो भी भलाबुरा कहना।
( गीता ॥१०) अर्थात् इन्दौर मे ता०६-४-५२ को "अखिल विश्व
अर्थ-चित्त स्थिर करके वासना और संग्रहका त्याग जैन मिशन" के प्रथम अधिवेशनके अध्यक्ष श्री रिषभदासजी करके अकेला एकान्तमें रहकर योगी निरन्तर आत्माको रांका वर्षावालेने भी उक्त रिवाजका आश्रय लेकर जन परमात्माके साथ जोड़े। साधुजनोंके निष्क्रिय एकाकी साधनाकी छेड़-छाड़ की है।
"विविक्तवेश सेविस्वमरतिजनसंसदि ॥" उनका कहना हुआ कि--
(गीता १३३१०) "जिस प्रकार ईसाई साधु प्रत्यक्ष सेवाका काम करते
"एतवानमिति प्रोक्तमज्ञानं यवतोऽज्यया ।" है वैसे ही हमारे साधुओंको भी करना चाहिए।" “साधुओ
(गीता १३।११)
___ अर्थ-एकान्त स्थानका सेवन, जनसमूहमें सम्मिलित का वैराग्य इतना एकाको हो गया है कि वे अब अनुपयोगी माने जाने लगे है।" "साधु इतने त्यागी होते है कि समाजसे
होनेकी अरुचि ।" "यह ध्यान कहलाता है, इससे उलटा जो कोई वास्ता नही रखते. ....वैराग्यका अर्थ निष्क्रियता नही,
है वह अध्यान है।" अनासक्ति है।"
म. गांधीने कहा है
"ईश्वरने मुझ जैसे अपूर्ण मनुष्यको इतने बड़े प्रयोगबेसमझ आदमीकी बातपर आन्दोलन करनेकी हल
के लिए क्यो चुना ? मै अहंकारसे नहीं कहता लेकिन मुझे जरूरत नही होती। किन्तु समझदार आदमी यदि बेतुकी वाकि परमात्माको गरीबोमें कळ काम लेना बात करदे तो जरूरत हो जाती है।
इसलिए उसने मुझे चुन लिया। मुझसे अधिक पूर्ण पुरुष श्री रांकाजीकी बात सिर्फ उनकी अपनी निगाहमें होता तो वह शायद इतना काम न कर सकता। पूर्ण मनुष्यजनसाधुओंकी एकाकी निष्क्रिय साधनाका महत्त्व नही को हिन्दुस्थान पहिचान भी नहीं सकता । वह बेचारा जंचने पुरती होती तो एतराज योग्य नहीं थी किन्तु वह तो विरक्त होकर गुफामें चला जाता। इसलिए ईश्वरने मुझलोकनिगाहमें उक्त साधुसाधनाका हलकापन जचनेका जैसे अशक्त और अपूर्ण मनुष्यको ही इस देशके लायक समझा। प्रतिनिधित्व भी करती है। अतएव वह एतराज योग्य अब मेरे बाद जो आवेगा वह पूर्ण पुरुष होगा।" है । देखिए वह कहां तक ठीक है
(गांधी सेवा संघ सभा ता० २२-६-४०) नीचे लोकमान्य पुरुषोंके प्रवचनोंमेसे कुछ संगत अंश इस प्रकार अलौकिकी वृति धारक (पु. सि. १६) अंकित किये जाते है जो बतलाते है कि समाजसे वास्ता न महात्माओं (साधुजनों) को दूषित ठहराना क्या है ? रखकर एकाकी निष्क्रिय साधना (अप्रत्यक्ष सेवा) करने- जैसाकि श्री कालिदासने कहा है-वह है और क्या है! वाला व्यक्ति ही पूर्ण पुरुष है। न कि समाजसे, वास्ता कहा हैरखकर सक्रिय सापना (प्रत्यक्ष सेवा) करनेवाला "मलोकसामान्यमचिन्त्यहेतुकम् ।।
विति मंचरितं महात्मनाम् ॥"