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अनेकान्त
सच तो यह है कि -लौकिक ज्ञानदान, अभयदान, "आत्मेतर्रागिणामम रक्षणं मम्मत स्मृतौ । आहार दान, गुणसुश्रुषादान, इन चार प्रकारके दान द्वारा तस्परं स्वात्मरक्षायां कृतं नातः परत्रयत् ॥" प्रत्यक्ष जन-सेवा करना यह सावधकर्तव्य है। जो कि प्रवृत्ति
(पंचाध्यायी २/७५६) प्रधान, अधिकांश प्रशस्त रागी द्वेषी, शत्रु मित्रप्रति असमान 'यस्मात् सकरायः सन् हन्त्यात्मा प्रथम मात्मनात्मानम् । दृष्टि रखनेवाले, सामाजिक जिम्मेदारी सहित, अहिंसाधर्म- पश्चाम्जायेत न वा हिंसा प्राण्यंतराणांतु॥" के उपासक (अणु साधक) गृहस्थोचित (श्रावको चित)
(पु सि. ७) कर्तव्य है । न कि-निवृत्ति प्रधान, अल्पांश प्रशस्त रागी
अब बतलाइए इस निवृत्तिमें स्वहितके अलावा परहित देषी, शत्रु-मित्र प्रति समान दृष्टि रखनेवाले, सामाजिक
(परसेवा)समाया हुआ है या नहीं ? कहना होगा अवश्य है। जिम्मेदारी रहित, अहिंसाधर्मके महा साधक, वनस्थ मुनियों (साधुओं) के उचित कर्तव्य है।
ऐसा भी कहा जा सकता है कि जब कि नि० परायण मनुष्य
दो लड़ते हुए प्राणियोको छुड़ाकर अभयदान तो दे सकता कुछ लोग ऐसा ख्याल करते है कि प्रवृत्तिपरायण
है. परन्तु वह यह दान देनेको भी कोशिश नहीं करता मनुष्य निवृत्तिपरायण मनुष्यसे परम-श्रेष्ठ-धर्मात्मा है।
फिर भी इन्हें श्रेष्ठ धर्मात्मा कैसे करें ? क्योंकि नि० परायण मनुष्य तो निजहित (इष्ट-उपकारसुखदकार्य) ही करता है किन्तु प्र. परायण मनुष्य तो
नि० परायण मनुष्य (साघु) अभयदान देने की भीपरहित भी करता है।
कोशिश नही करता यह कहना भी ठीक नही है। कोशिश परन्तु यह खयाल ठीक नहीं है । देखिए दो बातों पर वह अवश्य करता है परन्तु उसका रंग निराला है। ऊपर कह ध्यान दीजिए
आये है कि साधुमें प्रशस्त राग-द्वेषका अधिकांश नहीं है। १. एक तो यह कि परजीवोंको दुःख पहुंचाने वाली
प्र. सार ३/५४ परजीवोंको सुख-साधनोंकी लूट करनेवाली प्रवृत्तिके शत्रुमित्रके प्रति समान दृष्टि है, (आत्म प्रवाह, ११२) नियंत्रणका नाम है निवृत्ति-चित्तशुद्धि, चरित्र, धर्म, अतएव साधु प्रवृत्तिपरायण (श्रावक गृहस्थ) जैसी, याने मनासक्ति अथवा अहिंसा महाव्रत
एकका अहित (अनिष्ट, अपकार, दुःखदकारी) करके भी (पंचाध्यायी २/७५५-५७ । ७६४-६५) दूसरेका हित करने जैसी, सावद्य कोशिश नहीं करेगा। किन्तु जैसा कि कहा है
साधु तो हिसक (लडाकू) प्राणियोको--यदि वे समझ "कुल-बोणि-बीव-मग्पण डाणासु जाण उण जीवर्ग। सकने लायक होंगे तो-अहिंसातत्त्व समझानेकी-उनका तस्सारम्भणियसम परिणामो होई पढ़म व ॥" हृदय-परिवर्तन करनेको-कोशिश करेगा। यदि सफलता नहीं
(नियमसार ५६) मिली तो गरम न होगा--राग-द्वेष न करेगा--उन अर्थ-कुलस्थान, योनिस्थान, जीवसमासस्थान, लड़ाकू लोगोंको हाथापाई करके नहीं छुड़ायगा । अन्यथामार्गणास्थान, इत्यादि जीवोंके ठिकानोंको जान करके परिणा- यह होगा कि माधुको भी तीसरा लड़ाकू हो जाना उनमें आरम्भ करनेसे हटनेका जो परिणाम है वही प्रथम पड़ेगा । और तब तो यह अहिंसाको साधना नहीं होगी, अहिंसावत है।
किन्तु विराधना होगी । तो फिर-आखिर साधु करेगा २. दूसरी यह कि पर-रक्षाको जो परोपकार (सेवा) क्या ? -वह यही करेगा कि दिमागको ठण्डा रखकर कहा जाता है, असलमें यह परोपकार नहीं किन्तु निजोपकार वस्तुस्वरूपपर-लड़ाकू प्राणियोंके मिय्यात्व पर-विचार है। क्योंकि बिना राग (कषाय) भावके परका अपकार करता हुआ वहांसे हट जावेगा-वनको राह लेगा। (पात) होता नही, और राग भाव जो है सो प्रथम निज स्पष्ट हो गया है कि अलौकिको वृत्तिधारक (पु. सि. आत्मा का अपकारक(पातक)है अतएव अपनी रक्षाके लिए १६) साधु-निवृत्ति परायण मनुष्य-परम (श्रेष्ठ) पर-रक्षा आवश्यक है-कर्तव्य है न कि एहसान, परोपकार धर्मात्मा है और उनका निवृत्यात्मक कर्तव्य-निस्क्रिय या सेवा । जैसा कि कहा गया है
एकाकी साधना-महत्वकी वस्तु है।