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________________ किरण सर्वोदय कैसे हो? २७ नैतिक व्यवस्थाओ और परिस्थितियों द्वारा ही संचालित और आजका वस्तु विज्ञान (Meterial Science) ही पूर्ण है। प्रवर्तित हो रही है । आजके संसारमें यदि कोई व्यक्ति, वह भी अधूरा है। वस्तुविज्ञान और मानवविज्ञान जब तक समाज, सम्प्रदाय या देश अपनेको अकेला समझकर अपने मन एक दूसरे से मिलकर आगे नही चलेंगे तो तब तक दोनों मुताबिक एक आदर्श-पथमें ही चलनेकी चेष्टा करे तो अधूरे कहे जायंगे और आजके संसारमें कोई मसला हल यह उसकी महामूर्खता होगी। वह कोरा आदर्शवादी ही नहीं हो सकेगा और न कोई समस्या ही सुलझ पायेगी। रहेगा । आजका मानव स्वयं अपनी परिस्थितिका ही उलझन बराबर बढ़ती ही जायगी-ज्यो-ज्यों उसे सुलझाने नहीं बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियोका सबसे बड़ा गुलाम की चेष्टा होगी। यही हो रहा है। आज जो निराशा और है। यदि हमारे धार्मिक नेता, पंडित और उपदेश या गुरु असमर्थताका वातावरण फैला हुआ है वह इसी कारण लोग अब भी वही पुराना राग अलापते रहे तो यह कोरी है कि हमारा ज्ञान, जिसके सहारे हम सब कुछ कर या बकवास होकर ही रहेगी। उसका कोई असर नहीं हो सकेगा। करवा रहे है, पूरा नहीं है। और इसीलिये आधुनिक विज्ञान सर्वोदय भी अकेला न होना है न होगा। सारा संसार एक सर्व मानवोकी सुख-समृद्धिका ही जरिया न रहकर साथ सूत्रमें कुछ इस तरह गुथ गया है कि यदि समष्टिके रूपमें ही साथ नये-नये भयोकी सृष्टि और विस्तार करता जा रहा सर्व मानव समाजको एक कुटुम्बके प्राणी समझकर कोई है। सारा संसार भयभीत है हर दम डरता-कांपता रहता है व्यवस्था वर्तमान समयकी मागके अनुसार बनाई जाय या कि न जाने विज्ञान और राजनीति मिलकर कल क्या कर कायम की जाय तो दशा कुछ सुधरनेकी उम्मीद या डालें, जिससे मानवताका अन्त ही हो जाय । ऐसा क्यों? आशा हो सकती है, अन्यथा नही । प्रधान कारण यही है कि आजका पश्चिमी ज्ञान पूर्ण प्रश्न उठ सकता है कि सारा संसार विविध विद्वानोंसे नही है। विज्ञान जिसे हम विज्ञानके रूपमें समझ रहे हैं भरा पड़ा है जो हर तरहके सुझाव देते ही रहते है, वह एकतर्फी और अधूरा है-फिर भी हमारे वैज्ञानिक विज्ञानने इतनी उन्नति कर ली है और करता ही जा रहा अपने ज्ञानको एक खास सीमामें बन्द किये उसीमें इतने है जैसी पहले कभी नही, ज्ञानका प्रसार पहलेकी अपेक्षा व्यस्त रहते है कि उन्हें दूसरी ओर ध्यान देनेकी या तो हजारो हजार गुना हो गया है और बढ़ता ही जाता है, फुर्सत नही या उसे वे अपना मार्ग, लाइन या कार्य भी नही फिर भी एक कमी सभी महसूस करते है और अपनेको समझते। परिस्थितियोको बदलनेमे एकदम असमर्थ पाते है, वह क्यो? मानव मानव है । ससारमें मानव भी है और दूसरा कुछ क्या आजका ज्ञान पूर्ण नही ? अधूरा है ? एक-तर्फा है ? भी है। जानदार लोग या जीवधारी वस्तुएं भी है और या उस ज्ञानमें कोई खास त्रुटि है ? हां, बात ऐसी ही है। बेजान भी । अभी तक हमारा विज्ञान यह न जान पाया है न ज्ञानके विकासका कोई अन्त न है न होगा । ज्ञान जितना ही इसने सचमुच तर्कयुक्त उपायोंसे यह जाननेको ही चेष्टा की विकसित होता जायगा उतना ही और अधिकाधिक ज्ञान- है कि मानव क्या है ? मानवका निर्माण कैसे हुआ है ? के क्षेत्रोंका वितस्तारचक्र वृद्धिकी तरह होता जायगा। कोई मानव क्यों किसी विशेष प्रकारसे ही आचरण करता ज्ञान असीम है । यह समझ लेना कि जो कुछ पहलेके लोग है। दूसरे जीवधारी भी क्यों क्या करते हैं ? कहां इनका कह गये या लिख गये उसके अन्दर ही ज्ञानकी पूर्णता हो गयी समन्वय, समानता तथा कहां विरोध है, और क्यों कैसे? और आगे कुछ भी जाननेको नही है तो यह ज्ञानकी बात नही- इत्यादि । अज्ञानकी बात है। पर हमारे अधिकतर पडित इसीमें गर्व जैन तीर्थंकरोंने इन बातोंका विमल ज्ञान प्राप्त किया अनुभव करते है कि उनके पूर्वजोंने जो कुछ कह दिया या था, जो परम तर्कयुक्त, वैज्ञानिक और बुद्धिपूर्ण था। उन्होंने लिख दिया वही सब कुछ है। बाकी जो हो रहा है वह झूठ उसे संसारके सामने अपने समयमें रखा और संसारनेहै-"मिथ्या" है। यह भावना विशेष रूपसे हमारे देशमें बड़ी मानवताने-उमकी कद्र की और उसे मानकर एवं उस हानिकारक रही है और अब भी है। यह मै नहीं कहता कि मुताबिक आचरणकर सुख शान्ति भी प्राप्त की। पर समय
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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