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श्रुतकीर्ति और उनकी धर्मपरीक्षा
(डा. हीरालाल जैन, प्रोफेसर. नागपुर महाविद्यालय ) धर्मपरीक्षा नामक ग्रथके सम्बन्धमें अभीतक जो कुछ ज्ञात उसके ऊपरकी तुकबन्दीका अन्तिम शब्द 'लोयपियारउ' ही हो सका है-प्रकाशित व अप्रकाशित--उस सबका उल्लेख दूसरे पत्रपर आनेके कारण मिल सके है । प्रथम कडवकके इस डा० आदिनाथ नेमिनाथजी उपाध्यायने अपने 'हरिषेण-कृत उपलभ्य अशपरसे केवल इतना ही अनुमान किया जा सकता है अपभ्रंश धर्मपरीक्षा' (Harishena's Dharma- कि उस कडवकमे धर्मकी प्रशसा और उसकी अवहेलना करने. pariksha in Apabhrams'a) शीर्षक लेखमें कर वालोंकी निन्दा की गई होगी। कविने आगे चलकर कहा है कि दिया है, और उनका यह लेख भंडारकर ओरियंटल रिसर्च पहले भरतक्षेत्रमें धर्मका उपदेश जिनेन्द्र भगवान ऋषभदेवने इंस्टीटयूटको त्रैमासिक पत्रिकाके रजत जयन्ती अंक (Silver दिया था, और उसीका उपदेश इस कालमें वीरनाथ भगवानने Jubilee Number of the Annals of the किया। तत्पश्चात् धर्मके द्वारा प्राप्य सुखका वर्णन है। Bhandarkar Oriental Research Institute फिर लोकके अनन्त जीवों और उनके दुखोका वर्णन किया Poona, VolXXIII 1942) में प्रकाशित हो चुका है। गया है। इन दुखोसे जिस धर्मके द्वारा उद्धार हो सकता है किन्तु इस लेखमे में जिस धर्मपरीक्षा शीर्षक काव्यका परिचय उसकी आचार्य-परम्परा बतलाई गई है। इसी धर्मको एक दे रहा हूं वह उपाध्यायजीके उक्त लेखमे सूचित नहीं है, खेचर (विद्याधर) ने मुना और उसने अपने मित्रके कल्याणके क्योकि अभीतक की किन्ही ग्रंथ-सूचियोंमें उसका उल्लेख नही लिए उसे सुनाया। इस प्रकार काव्यको मुख्य कथा प्रथम पाया जाता। मैं स्वयं भी इस ग्रंथका नाम किन्हीं अप्रकाशित सन्धिके पांचवें कडवकके मध्यमें प्रारम्भ होती है। और मूखोंग्रंथोंकी भंडारसूचियोमें नही देख पाया, और न किसी अन्य के दश प्रकारोमेसे चारके वर्णनके साथ प्रथम सन्धि समाप्त लेखकने अभी तक इसका, जहां तक मुझे ज्ञात है, कोई उल्लेख होती है। द्वितीय सन्धि मूर्खके पाचवे प्रकारसे प्रारम्भ होकर किया । अत. यह अथ एक सर्वथा नई खोज कहा जा छाया और अग्निको कथाके साथ समाप्त होती है और उसीके सकता है।
साथ दूसरी सभा भी समाप्त हो जाती है। तीसरी सन्धिके धर्मपरीक्षाको प्रस्तुत हस्तलिखित प्राचीन प्रति अपभ्रंश साथ तृतीय सभा प्रारम्भ होती है। कमण्डलकी कथा और ग्रंथोके खोजके समय मेरी दृष्टिमे आई और इस समय मेरे पास उसका पुराणोंके आख्यानो-द्वारा समर्थन इस सन्धिके है। इस प्रतिमे ९८(अंठान्नवे) पत्र है। प्रथम पत्र तथा अन्तके
सोलहवे कडवक तक चलता है। वहामे फिर जैनशास्त्रानुकुछ पत्र अप्राप्त है। ९८ वे पत्रके अन्त तक सातवी सधिका
सार लोकका वर्णन प्रारम्भ होकर चौथी सन्धिके अन्त तक सातवा कडवक चला है जो पूरा नही हो पाया। उस पत्रपरके
चला जाता है। चौथी सन्धिका नाम भी 'लोकसरूववण्णणो' अन्तिम शब्द है .
दिया गया है। कथाका म पाचवी सन्धिमे फिर उठाया गया
है जबकि मनोवेग तापसके वेष उपस्थित हुआ और चौथी 'घत्ता ।। णियकट्ठ . .. .. '
सभा प्रारम्भ हुई। यह सभा सधिके चौदहवे कडवक पर प्रथम पत्रके न मिलनेसे अथके प्रारम्भका प्रथम कड
समाप्त होती है। शेष सन्धिमें पांचवी सभाका वर्णन किया वक अलभ्य हो गया है केवल उसकी अन्तिम तुकबन्दी और
गया है, और इस सन्धिका नाम, 'पचमसालाजयवण्णणो' - - - -
दिया गया है। छठी सन्धिमे अन्तिम सभाका वर्णन है। सातवी * इस विषयका निबन्ध अंग्रेजी म अखिल भारतीय सन्धिके प्रारम्भमें पवनवेगने यह प्रश्न उठाया कि वेदोंके प्राच्य सम्मेलनके १५हवे अधिवेशनके समय प्राकृत रचयिता कौन है ' प्रस्तुत प्रनिमे इम मातवी मन्धिके केवल
और जैन धर्म विभागके सम्मुक बम्बईमें सन् १९४१ प्रथम सात ही कडवक सुरक्षित है, जिनमें ब्राह्मणोंके भ्रष्टनवम्बरमे पढ़ा गया था।
चारित्र हो जानेपर उनके द्वारा एक दलदलमे फसे भैसेके