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अनेकान्त
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की दृष्टिसे विशेषता आ जायेगी और वे संभावित प्रशस्तताका रूप धारण करेंगी। यहां पर इतना और भी जान लेना चाहिये कि यह सब कथन सम्यग्दर्शनका कोरा माहात्म्यवर्णन नही है बल्कि जैनागमकी सैद्धान्तिक दृष्टिके साथ इसका गाढ (गहरा ) सम्बन्ध है ।
समयकुचारित्रका पात्रकौन और उद्देश्य क्या ?
सम्यक्चारित्रका पात्र कौन और किस दृष्टि अथवा उद्देश्यको लेकर वह चारित्रका अनुष्ठान एवं पालन करता है अथवा उसके लिये वह विधेय है । इन दोनो विषयोंको स्पष्ट करते हुए स्वामीजीने जिस अमृतवचनका प्रणयन किया है वह उनके समीचीन धर्मशास्त्रमें निम्न प्रकारसे उपलब्ध होता है :
मोह-ति मरापहरणे दर्शनलाभावना'त संज्ञानः । राग-द्वेष-निवृत्यं वर प्रतिपद्यते साधु ॥४७॥
मोह तरिका अरहरण होने पर - दर्शनमोह ( मिथ्यादर्शन) रूपी अन्धकारका यथासभव उपशम, क्षय तथा क्षयोपशम होने पर अथवा दर्शनमोह और चारित्रमोह - रूप मोहका तथा ज्ञानावरणादिरूप तिमिरका यथासंभव क्षयोपशमादिरूप अपहरण होने पर - सम्यग्दर्शन के लाभपूर्वक सम्यज्ञानको प्राप्त हुआ जो साधु पुरुष - आत्मसाधनामें तत्पर जो गृहस्थ अथवा मुनि - है वह रागद्वेष की निवृत के लिए चरणको -- हिसादि-निवृत्ति-लक्षणरूप सम्यक्चारित्रको -- अकार करता है ।'
व्याख्या - यहा 'दर्शन' और 'चरण' शब्द बिना किसी विशेषणके साथमे प्रयुक्त होनेपर भी पूर्व प्रसंग अथवा ग्रन्थाधिकारके वश 'सम्यक्' पदसे उपलक्षित है, और इसलिये उन्हे क्रमशः सम्यग्दर्शन तथा सम्यक्चारित्रके वाचक समझना चाहिये । सम्यक्चारित्रको किसलिये अंगीकार किया जाता है— उसकी स्वीकृति अथवा तद्रूप प्रवृत्तिका क्या कुछ ध्येय तथा उद्देश्य है — और उसको अगीकार करनेका कौन पात्र है, यही सब इस कारिकामें बतलाया गया है, जिसे दूसरे शब्दोंद्वारा आत्मामें सम्यक्चारित्रकी प्रादूर्भूतिका क्रम-निर्देश भी कह सकते हैं । इस निर्देशमें उस सत्प्रा गीको सम्यक्चारित्रका पात्र ठहराया है जो सम्यग्ज्ञानी हो, और इसलिये अज्ञानी अथवा मिथ्याज्ञानी उसका पात्र ही नही । सम्यग्ज्ञानी वह होता है जो सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर लेता है— सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति उसके सम्यग्ज्ञानी होनेमे कारणीभूत है । और
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सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति तब होती है जब मोहतिमिरका अपहरण हो जाता है । जबतक दर्शनमोहरूप तिमिर ( अन्धकार) बना रहता है तबतक सम्यग्दर्शन नही हो पाता । अथवा जितने अंशो में वह बना रहता है उतने अंशोंमें यह नही हो पाता । अतः पहले सम्यग्दर्शनमें बाधक बने हुए मोहतिमिरको सप्रयत्न दूर करके दृष्टिसम्पत्तिको -- सम्यदृष्टिको प्राप्त करना चाहिये और सम्यग्दृष्टिकी प्राप्तिद्वारा सम्यग्ज्ञानी बनकर राग-द्वेषकी निवृत्तिको अपना ध्येय बनाना चाहिये, तभी सम्यक्चारित्रकी आराधना बन सकेगी । जितने जितने अंशोमे यह मोह - तिमिर दूर होता रहेगा, उतने- उतने अशोमे दर्शन-ज्ञानकी प्रादूर्भूति होकर आत्मामे सम्यक्चरित्र के अनष्ठानकी पात्रता आती रहेगी । और इसलिये मोह- तिमिरको दूर करनेका प्रयत्न सर्वोपरि मुख्य है - वही भव्यात्मामे सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप धर्मकी उत्पत्ति ( प्रादूर्भूति) के लिये भूमि तैयार करता है । इसीसे ग्रन्थको आदिमें मोह- तिमिरके अपहरणस्वरूप सम्यग्दर्शनका अध्ययन सबसे पहले कुछ विस्तारके साथ रक्खा गया है और उसमें सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिपर सबसे अधिक जोर देते हुए उसे ३२ वी कारिकामे ज्ञान और चरित्रके लिये बीजभूत बतलाया हैं । सम्यक्चारित्रके ध्येयका स्पष्टीकरण-
राग-द्वेष-निवृत्तिहिं.स. वि-निजतंना 'ता भवति । अनक्षितार्थवृत्तिः पुरुषः सेवते नृपतीन् ॥४८॥ 'राग-द्वेषको निवृत्ति हिंसादिकको निवर्तनाचारित्ररूपमे कथ्यमान अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचयं और अपरिग्रहादि व्रनोको उपासनासे को गई होती है । ( इसी से बुवजन हिसादिनिवृत्तिलक्षण चारित्रको अगीकार करते है -- उसकी उपासना-आराधनामे प्रवृत्त होते हैं । सो ठीक ही है); क्योंकि अर्थवृत्तिको अथवा अर्थ (प्रयोजनविशेष ) ओर वृत्ति (आजीविका ) को अपेक्षा न रखता हुआ ऐसा कौन पुरुष है जो राजाओं की सेवा करता है ? कोई भी नही ।'
व्याख्या -- जिस प्रकार राजाओका सेवन बिना प्रयोजनके नही होता उसी प्रकार अहिसादि व्रतोंका सेवन भी बिना प्रयोजनके नहीं होता, उनके अनुष्ठान-आराधनरूप सेवनका प्रयोजन है राग और द्वेषको निवृत्ति । जिस व्रतीका लक्ष्य राग-द्वेषको निवृत्तिकी तरफ नही है उसे 'लक्ष्य-भ्रष्ट' और उसके व्रतानुष्ठानको 'व्यर्थका कोरा आडम्बर' समझना चाहिये ।
- युगवीर