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समन्तभद्र-वचनामृत
धर्ममें सम्यग्दर्शनको प्रधानपद क्यों ?
सम्प्रदर्शनशुद्वातारक तिरंजनम-स्त्रीवानि । धर्मके अंगो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्
दुरुकुल-मिताऽल्पापुर्वरिप्रतांच वजन्ति नाऽप्यतिका ॥ चरित्रमें सम्यग्दर्शनको प्रथम स्थान एव प्रधानपद क्यों ?
'जो (अब द्वायुष्क) सम्यग्दर्शनले शुद्ध है-जिनका इसका स्पष्टीकरण करते हुए स्वामी समन्तभद्र अपने समीचीन ।
आत्मा (आयुकर्मका बन्ध होने के पूर्व) निर्मल सम्यग्दर्शनका धर्मशास्त्र (रत्नकरण्ड) मे लिखते है.
धारक है-वे अवती होते हुए भी-अहिसादि-व्रतोंमेसे विद्या-वृत्तस्य संभूति-स्थिति-वृद्धि-फलोदया ।
किसी भी व्रतका पालन न करते हुए भी-नरक-तिर्यन्व न सन्त्यसति सभ्यत्वे बीजाऽभावे तरोरिव ॥३२॥
गतिको तया (मनुष्यगतिमें) नसक और स्त्रीको पर्यायको 'जिस प्रकार बीजके अभावमें-बीजके बिना- प्राप्त नहीं होते और न (भवान्तरमें) निंग कुलको, वृक्षको उत्पत्ति, वृद्धि और फ्लसम्पत्ति नहीं बन सकती उसी अगोंको विकलताको, अल्पायुको तथा दरियताको-सम्पत्तिप्रकार सम्यक्त्वके अभावमें-सम्यग्दर्शनके बिना- हीनता या निर्धनताको-ही प्राप्त होते हैं। अर्थात् निर्मल सन्य'ज्ञ न और सम्यरचारित्रको उत्पत्ति, स्थिति- सम्यग्दर्शनको प्राप्तिके अनन्तर और उसकी स्थिति रहते हुए स्वरूपमें अवस्थान-वृद्धि-उत्तरोत्तर उत्कर्षलाभ--और उनसे ऐसे कोई कर्म नही बनते जो नरक-तिर्यच आदि पर्यायोंके यथार्थ-फलसम्पत्ति--मोक्षफलकी प्राप्ति नहीं हो सकती।' बन्धके कारण हों और जिनके फलस्वरूप उन्हे नियमतः
ध्यारया-यहां 'सम्यक्त्व' शब्दके द्वारा गृहीत जो उक्त पर्यायो अथवा उनमेमे किसीको प्राप्त करना पड़े।' सम्यग्दर्शन वह मूलकारण अथवा उपादानकारणके रूपमें प्रतिपादित है। उसके होनेपर ही ज्ञान-चारित्र सम्यग्ज्ञान- ध्याश्या-यह कथन उन सम्यग्दृष्टियोकी अपेक्षासम्यक् चारित्रके रूपमे परिणत होते हैं, यही उनको सम्यग्ज्ञान- से है जो सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके पूर्व अबद्धायुष्क रहे होंसम्यक् चरित्ररूपसे संभूति है। सम्यग्दर्शनको सत्ता जबतक __नरक-तिर्यच-जैसी आयका बन्ध न कर चुके हों; क्योंकि बनी रहती है तबतक ही वे अपने स्वरूपमें स्थिर रहते किसी भी प्रकारका आयु-कर्मका बन्धन एक बार होकर है, अपने विषयमें उन्नति करते है और यथार्थ फलके दाता फिर छूटता नही और न उसमें परस्थान-संक्रमण ही होता होते है। सम्यग्दर्शनकी सत्ता न रहनेपर उत्पन्न हुए सम्यग्ज्ञान- है। ऐसी हालतमे जो लोग सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके पूर्व सम्यक्चारित्र भी अपनी धुरी पर स्थिर नही रहते-डोल अथवा उसकी सत्ता न रहने पर नरकायु या नियंचायुका जाते है-उनमे विकार आ जाता है, जिसमे उनकी वृद्धि बन्ध कर चुके हों उनकी दशा दूमरी है-उनमे इस कथनका तथा यथार्थ-फलदायिनी शक्ति रुक जाती है और वे मिथ्या- सम्बन्ध नही है-वे मरकर नरक या नियंचगतिको जरूर ज्ञान-मिथ्याचारित्रमें परिणत होकर तद्रूप ही कहे जाते है प्राप्त करेंगे। हा, बद्धायुष्क होने के बाद उत्पन्न हुए सम्यग्दर्शनतथा यथार्थ फल जो आत्मोत्कर्ष-साधन है उसको प्रदान के प्रभावसे उनकी स्थिनिमें कुछ सुधार ज़रूर हो जायगा, करनेमे समर्थ नही रहते। अतः ज्ञान और चारित्रको अपेक्षा जैमे सप्तमादि नरकोको आयु बाधनेवाले प्रथम नरकमे ही सम्यग्दर्शनकी उत्कृष्टता स्पष्ट सिद्ध है-वह उन दोनोकी जायेंगे-उससे आगे नही-और स्थावर, विकलत्रयादि उत्पत्ति आदिके लिये बीजरूपमें स्थित है।
रूप नियंचायुका बन्ध करनेवाले स्थावर तथा विकलत्रयसम्यग्दर्शनके माहात्म्यका वर्णन करते हए स्वामी समन्त- पर्यायको न धारणकर तिर्यचोमे सनी पंचेन्द्रिय पुल्लगभद्रने जो रहस्यकी बाते अपने समीचीन धर्मशास्त्रमे पर्यायको ही धारण करने वाले होगे। इसी तरह पूर्ववद्ध कही है उनमेसे कुछ इस प्रकार है:
देवाय तथा मनुष्यायुकी बन्धपर्यायोमे भी स्वस्थान-संक्रमण