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________________ अनेकान्त [वर्ष ११ है उसे अहिंसाकी उपासना करनी चाहिये-राग-द्वेषकी नही-सम्यक्त्व नही वहां आत्मोद्वारका नाम नहीं। अथवा निवृत्ति, परिगृह-त्याग, दया, परोपकार अथवा लोकसेवाके यो कहिए कि भयमें संकोच होता है और संकोच विकासको कामोंमें लगना चाहिए। मनुष्यमे जब तक हिंसकवृत्ति रोकनेवाला है । इसलिए आत्मोद्वार अथवा आत्मविकासके बनी रहती है तब तक आत्मगुणोंका घात होनेके साथ-साथ लिए अहिंसाकी बहुत बडी जरूरत है और वह वीरता का चिन्ह "पापाः सर्वत्र शंकिताः" की नीतिके अनुसार उसमें भयका या है-कायरताका नही । कायरताका आधार प्रायः भय होता प्रतिहिंसाको आशंकाका सद्भाव बना रहता है। जहां भयका है, इसलिए कायर मनुष्य अहिमाधर्मका पात्र नहीं-उसमें सद्भाव वहां वीरत्व नही-सम्यक्त्व नहीं' " और जहा वीरत्व अहिसा ठहर नही सकती। वह वीरोके ही योग्य है और इसी १७. इसीसे सम्यग्दृष्टिको सप्त प्रकारके भयोसे रहित लिए महावीरके धर्ममे उसको प्रधान स्थान प्राप्त है। जो लोग बतलाया है और भयको मिथ्यात्वका चिह्न तथा स्वानुभव- अहिमापर कायरताका कलक लगाते है उन्होने वास्तवमे की क्षतिका परिणाम मूचित किया है । यथाः अहिंसाके रहस्यको समझा ही नही । वे अपनी निर्बलता और "नापि स्पष्टो सुदृष्टिर्य. स सप्तभिर्भयमनाक ॥" आत्म-विस्मृतिके कारण कषायोसे अभिभूत हुए कायरताको "ततो भीत्याऽनुमेयोऽस्ति मिथ्याभावो जिनागमात । वीरता और आत्माके क्रोधादिक-रूप पतनको ही उसका सा च भीतिरव स्याडेतोः स्वानुभवक्षतेः।" उत्थान समझ बैठे हैं। ऐसे लोगोंकी स्थिति, निःसन्देह बड़ी ही -पंचाध्यायी करुणाजनक है। महावीर स्तवन [श्री पं० नाथूराम 'प्रेमी'] धन्य तुम महार भगवान ! लिया पुण्य अवतार जगतका करनेको कल्याण धन्य० ॥ बिलबिलाट करते पश-कुलको देख, बया-मय-प्राण! परम अहि सामय मुधर्मको डाली नीव महान ।धन्य०॥ ऊँच-नीचके भेव-भावका बड़ा देख परिमाण । सिखलाया सबको स्वाभाविक समता-श्व प्रधान ।।धन्य०॥ ★mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm मिला समवसृतमें सुर-नर-पशु सबको सम सम्मान । समता औं' उदारताका यह कंसा सुभग विधान ॥धन्य०॥ अग्बी श्रद्धाका ही जगर्म देख राज्य बलवान । कहा-"न मानो बिना यक्तिके कोई वचन प्रमाण"।धन्य०॥ जव समर्थ, स्वयं करता है, स्वतः भाग्य-निर्माण । यों कह, स्वावलम्ब-स्वाश्रयका दिया सुफलप्रवज्ञान अन्य इन ही बावोंके सम्मुख रहनेसे सुखखान । भारतवासी एक समय घे भाग्यवान गुणवान ॥धन्य० ॥
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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