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________________ सम्पादकीय १. अनेकान्तकी वर्षसमाप्ति - जारी रहा और वे पाठकोको बड़े ही रोचक प्रतीत हुए। इस किरणके साथ अनेकान्तके व वर्षकी समाप्ति प्राशा थी ऐसे लेग्बामे भनेकान्तकी श्री बराबर बनेगी, हो रही है। यह वर्ष अनेक उलझनों तथा कुछ विकट परन्नु उनकी अस्वस्थताके कारण बह सिलसिला बन्द समस्यायोंसे पूर्ण रहा है। इमका प्रारम्भ निमोनियाकी हो गया, जिसका मुझे खेद है ! इसी तरह बाब जयभग वानजी एडवोकेट पानीपतके गवेषणपूर्ण लेग्वांका जो सिलबीमारीसे उठकर मैंने कर्तव्यके अनुरोधवश अपनी निर्बल अवस्था में ही किया था; फिरभी अनेक माजनांके सहयोगी पिला पहली किरणमे चला था वह भी उनकी अस्वस्थताक पहली किरण विशेषा के रूपमे ऐमी यन आई थी कि कारण बराबर जारी नहीं रह सका-६ठी किरणके बादमे जिमे सभीने पसन्द किया था और पूज्य वर्णी श्रीगणेश नो वह बन्द ही पड़ा है। मुझे ऐसे ममाचार मिलते रहे प्रमादजीने तो उमपर अपना हर्ष व्यक्त करते हुए यहां तक है कि उन्होंने जैसे तैसे दो-एक लेख और भी लिम्व है, लिखा था कि-"पत्रकी प्रशंसा क्या करूँ पत्रको पढकर जां उनकी बीमारीके कारण अभी कुछ अधरे हैं। यह सब जो ग्रानन्द अाया-इस समय यदि मेरे स्थानपर कोई समाजका दुर्भाग्य है, जो कुछ निःस्वार्थ भावगं ठोस सद्गृहस्थ होता नब पत्रको अजर-अमर कर देता । मै तो माहित्य मेवा करना चाहते है उनके पीछे बीमारियों पड़ी भिक्षुक है-यही मेरा आशीर्वाद है जो आप अजर-अमर हुई हैं। हार्दिक भावना है कि ऐसे महानुभाव शीघ्र ही हो जावें ।' वर्णाजीने ये उद्गार अपने जिस पत्रमें प्रकट स्वास्थ्य लाभकर अपनी माहिन्य-मेवा-विषयक मनोकामकिये थे उसे अनेकान्तकी दूसरी किरणने ही प्रकाशित कर नाांको पूरा करने में समर्थ होवे। दिया गया था। परन्तु अभीतक वनीको मनोभावना- अनेकान्तको यह किरण फरवरीके महीनेमे प्रकाशित वाला कोई सद्गृहस्थ सामने नहीं पाया जो अपने याधिक हो जानी चाहिये थी, परन्तु जनवरी में वीरसेवामन्दिरके महयोग श्रादिके द्वारा पत्रका अजर अमर कर देना। प्रचारादिकी दृष्टिमे श्रीबाहुबलीजीको यात्राकं लिये एक उल्टा, इस वर्ष भी प्रचार प्रादिके अभावम पत्रको ग्राहका संघ निकालने और श्रवणबेलगोलमें संस्थाका नैमित्तिक का रोटा ही रहा है। इस वर्षक आय व्ययका हिमाय अधिवेशन करनेका कुछ ऐसा आयोजन हुआ कि जिसके अगली किरणमें प्रकाशित किया जायगा और उसमे पाठका कारण मुझ और पं. परमानन्दजी (प्रकाशक) को भी दो को वस्तुस्थिनिका ठीक पता चल जायगा। महीने के लिये मफरमे जाना आवश्यक हश्रा । पीछे अपने दूसरी किरणको तय्यार कराते ही मेरे माथ जी भयंकर माफम ऐसा काई नही था जो किरणका निकाल सके नांगा दुर्घटना घटित हुई वह सर्वविदित है, उपने प्राणाको तदनुसार ही हम किरण को अप्रैल माममे निकालने की ही मंशयमें डाल दिया था और मुझे बलात् पाठकाका मुचना पिछली किरण (11) में दे दी गई थी और इममंबास बंचित कर दिया था। धर्मक प्रतापमं कोई नीन लिय यह किरण दो महीनेक पर विलम्ब मईक प्रथम महीने बाद मैं जैसे तैसे पाठकोकी संवा पुनः उपस्थित मप्ताहमे प्रकाशित हो रही है। हो सका था। अनेक उपचारोंके होते हुए भी शरीरको जो इन यब परिस्थितियांक रहने हुए भी अनेकान्तक हति उक्त दुर्घटनामे पहुंची उसकी पूरी प्रति अभी तक भी पाठकोंका मैटरको दृष्टिम तनिक भी टोटेने नहीं रहने दिया नहीं हो पाई है और इसीम मैं पत्रक सम्पादन-कार्यमे गया है-उन्हें निर्धारित मंग्याम अधिक पृष्ट ही पदनका पूरा यांग नहीं दे सका। दिय गय है और वे भी प्राय. बारबार पढ़ने योग्य अग्छ इस वर्षके प्रारम्भमे ही बाब छोटेलालजी कलकत्ताक डोम माहिन्यके । फिर भी अपनी कमजोरी और परिस्थिमहत्वपूर्ण सचित्र लेख मिलने शुरू हुए थे और उनसे यह तियाक वश मेवामें जो कुछ घटियो रह गई हैं उनके लिये आश्वासन भी प्राप्त हुआ था कि वे घराबर अपने जेब में अपने पाठकान समा-प्रार्थी हूं। देते रहेंगे। तीसरी किरण तक उनके लेखांका मिलमिला यहाँ पर मैं उन मजनाका आभार मान विना नहीं
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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