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अनेकान्त
किरण १२]
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रहमकता जिन्होंने संरक्षक और सहायक बनकर अपने मित्र, श्रीराजमलजी मवैया, श्री एन. सी. बाकलीवाल
आर्थिक सहयोग-द्वारा अनेकान्तकी जड़ोंको कुछ मजबूत और बा. रतनचन्दजी मुख्तारके नाम खास तौरसे उल्लेकिया है। वर्षके शुरूम । संरक्षक और १० सहायक खनीय है और ये तथा दूसरे सभी लेखक धन्यवादके पान थे वर्ष भरमें कुल दो मंरक्षक और १. सहायक है। बाकी पं. परमानन्दजी तो अपनेही हैं और अनेकान्तके
और बड़े हैं, जिनके शुभ नाम पहली किरण और इस प्रकाशक होनेसे उसके संचालकों में हैं, उन्हें अलगसे धन्यकिरणके अन्तिम टाइटिल पेजों परसे भले प्रकार जाने जा बाद क्या दिया जाय? फिर भी इतना कहना होगा कि सकते हैं। यह संख्या बहुत थोड़ी है-कमसे कम ... उनके लेख काफी है और उन्होंने हिन्दीके अनेक जैन संरक्षक और १०० महायक तो होने ही चाहिये । ऐमा कवियोंका परिचय पाठकोंके सामने रक्खा है । प्राशा है ये होने पर पत्र आर्थिक चिन्तासे बहुत कुछ मुक्त हो जायगा सब लेखक अगले वर्ष और भी अधिक उत्साहके साथ
और उस वक तकनो मरेगा नहीं जब तक वर्णीजीको अनेकान्तको अपना सहयोग प्रदान करनेकी कृपा करेंगे मनोभावना वाला कोई सदगृहस्थ जन्म लेकर अथवा और दूसरे भी कुछ उदारमना अच्छे लेम्बकाका सहयोग भागे प्राकर इसे सब प्रकारमे अजर अमर नहीं कर देगा। उसे प्राप्त होगा समाजमेंसे इतने संरक्षकों और सहायकोंका होना कोई बड़ी बात नहीं है, यदि बाय नन्दलालजी कलकत्तावाला २. पुरस्कारोंकी योजनाका नतीजाकी तरह भनेकान्तम्मे प्रम रखने वाले सज्जन अपने अपने
अनेकान्तकी गत जून-जुलाईकी किरणमें मैंने अपनी नगर-ग्रामों में इसके लिये कुछ पुरुषार्थ करें । ऐसा करके वे
ओरसे पुरस्कारोंकी एक योजना निकाली थी, जिसमें पांच अनेकामतको स्थायित्व प्रदान करने में ही नहीं बक्षिक उसे विषयोंके पांच लेखोंपर ५००)रु. के पुरस्कारोंकी घोषणा समाजका एक आदर्शपत्र बनाने में भी सहायक हो सकेगे। की गई थी और लेखोंको भेजनेके लिये ३१ दिसम्बर तक उनके इस कृत्यस संचालकोंको बहुत प्रोत्साहन मिलेगा
की अवधि रक्खी गई थी। माथ ही यह निवेदन किया और वे भी फिर कोई बात उठा नहीं रकाबगे । आशा है या जो मन
ही मितिमें न ऐसे उद्योगी पुरुष शीघ्र ही आगे आएंगे और संरक्षका अथवा उसे लेना नहीं चाहेंगे उनके प्रति दृसंर प्रकारम तथा महायकों की संग्याम काकी वृद्धि कराने में समर्थ सम्मान व्यक्त किया जायेगा। उन्हें अपने इष्ट एवं अधिहोगे। जो प्रेमी पाठक कोई संरक्षक या सहायक न बना कृत विषयपर लोकहितकी दृष्टिले लेख लिम्बनेका प्रयत्न
के सम्हें कमसे कम ५-७ ग्राहक तो जरूरही बना जार करना चाहिये ।" इसके सिवा उस कि देखे चाहिये।
'सम्पादकीय' में पुरस्कार-योजनाकी अपनी दृष्टिको भी अन्तमें में उन महानुभावों को भी नहीं भुला मकता स्पष्ट कर दिया गया था, जिसका संक्षेप इतना ही था कि जिन्होंने अपने मूल्यवान लेग्व भेजकर 'अनेकान्त' की 'विद्वानोंको अवकाशके समयमें काम मिले, उनकी प्रतिभाको श्रीवृद्धि की है और जिनके सहयोग बिना अनेकान्त अपने चमकनेका अवसर प्राप्त हो और वे समाज तथा देशहितके पाठकोंकी उतनी सेवा नहीं कर सकता था जितनी कि वह लिये आवश्यक ठोस साहित्यका निर्माण कर यशस्वी बन कर सका है। उन महानुभावामे बाब छोटेलालजी और सकें, तथा वीरसेवामन्दिरसे पुरस्कारोंकी परम्परा मेरे बा. जपभगवानजीके अलावा पं• कैलाशचन्द्रजी शास्त्री, जीवनमें ही चालू हो जाय। परन्तु खंद है कि समाजके प्रो. महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य, प्रो. देवेन्द्रकुमारजी विद्वानोंका इस उपयोगी योजनाकी ओर कोई खास ध्यान एम.ए., श्री दशरथशर्माजी एम.ए.डी.लिट्, म. भगवान- नहीं गया! इसीसे किसी भी विद्वानने एक भी विषयपर दीनजी, श्रीरिषभदासजी राका, बाबू अनन्तप्रसादजी बी. लेख भेजनेकी कृपा नहीं की-सिर्फ एक बाल ब्रह्मचारिणी एससी., श्रीजमनालालजी साहित्यरत्न, बाबू उग्रसेनजी विदुषी स्त्री श्रीविद्य लता शाहने, जो न्यायतीर्थ होनेके एम. ए. वकील, पं. दरबारीलालजी न्यायाचार्य, डा. साथ साथ बी. ए. बी. टी. भी है और शोलापुरके श्रावहीरालालजी जैन एम. ए., श्रीनगरचन्दजी नाहटा, काश्रममें शिक्षा प्राप्त करके उसीमें प्रधान अध्यापिकाके बार दुलीचन्दजी जैन एम. एससी., श्रीदौलतरामजी पद पर नियुक्त है, एक विषयपर अपना उत्साह प्रदर्शित