________________
I
२]
प्रदर्शित किया गया है। यह शिला-चित्र प्रथम शताब्दी या उससे भी पूर्व कालका है। (चित्र नं. ३) ।
tar) जैसी थी अर्थात् जिसका पेट नाख (लंबी नासपाती) के आकारका और ग्रीवा लम्बी होती थी । सुषिर जातिके यंत्रो वेणु ( वशी ) थी। यह वांसकी होती थी और इसमें ७ छिद्र रहते थे और कभी-कभी एक सिरे पर धातुके मकरद्वारा अलंकृत होती थी। आनद्ध जातिके वादित्रोंमें ढोल, मृदंग, मुरज है । ढक्का और भेरी ये वृहदाकार नगारे होते थे जिनका उपयोग प्राय युद्धमें होता था। पटह एक प्रकारका ढोल था जो प्रायः घोषणाके लिये अथवा ध्यान आकर्षित करने के लिये व्यवहार किया जाता था ।
अब पाठकोके समक्ष कुछ भित्ति चित्रोके उदाहरण रखे जाते है । मद्राससे प्रायः २४० मील और त्रिचनापल्ली से लगभग ३३ मील दक्षिणमें पुदुकोट्टा राज्य है । इसकी राजधानी (पुदुकोटा) से ९ मील उत्तर-पश्चिम में एक पहाड़ीके नीचे सित्तन्नवासल नामका गाव है । सित्तन्नवासल का संस्कृत' सिद्धनां वास: ' और प्राकृत रूपसिद्धण्णवासो होगाअर्थात् सिद्धोका मुनियोका बासस्थान पहाड़ीने जैनमुनियोंक
माज पाठकोको हम इसी सम्बन्धके पुरातत्वके कई निवासके लिये गुफाएँ बनी हुई है जो कृत्रिम और अकृत्रिम जैन निदर्शन दिखाना चाहते है। दो प्रकारकी है। इनमे एक गुफा मन्दिरमें तीन तीर्थंकरोंकी और उसके बरांडामें दो तीर्थंकरोंकी कुल पांच मूर्तियां पद्मासन है और कई सुन्दर भित्ति चित्र है। ये पल्लव नरेश महाराज महेद्रवर्मन् प्रथमके द्वारा लगभग सातवीं शताब्दी में निर्मित हुई है। चित्र बड़े ही सुन्दर और अजन्ता गुफाके चित्रोसे मिलते-जुलते है ।
गुफा मन्दिरके अर्ध मंडपके सामने दो वृहत् चौकोर स्तम्भ है जिन पर नर्तकियोके दो रंगीन चित्र बने हुए है । दाहिने स्तम्भकी नर्तकीका वाम हस्त दंडहस्तमुद्रामें है । उत्तरी स्तम्भकी नर्तकीका वाम हस्त गजहस्त मुद्रामें है । दोनों नर्तकियोके स्थूल नितम्ब, पतली कमर, रत्नविजड़ित आभूषण और पुष्प प्रसाधित केश तथा अपूर्व लावण्य और ताल एव लययुक्त कोमल मुग्धकर और दृढ़ गति द्वारा चित्रकारने उन्हे अमर रूप प्रदान कर दिया है । (चित्र नं. ४ )
भित्तिचित्रोंके अन्य निदर्शन | दक्षिणका कांचीपुरम् ( कांजीवरम्) अति प्राचीन कालसे प्रसिद्ध है। यहां जहां जैनोंका वास था उस प्रदेशको जिनकांची कहते थे । कांजीवरम्से दो मील पर वेगवती के दक्षिण तट पर अब जो तिरुपट्टिकुन्नम नाम का गांव है वही जिनकांची है। और जो काजीवरमका ही भाग है। जैनों के प्रसिद्ध विद्या स्थानोंमें जिनकांची भी एक था। सन् ६४० में येन स्यांग नाम का चीनी यात्री यहां आया था। उसने लिखा है कि यहां जैन बहुत बड़ी संख्यायें है ।
जिनकांचीमें दो जैन मन्दिर है जो इस जिले के सबसे प्राचीन है। इनमें पल्लवनका चन्द्रप्रभ-मन्दिर अधिक प्राचीन है, पर छोटा है। दूसरा पूर्वयोगका शैलोक्यनाथ ( वर्द्धमान) मन्दिर है जो कांजीवरम् तालुकका सबसे
संगीतका जीवनमें स्थान
प्रस्तर-शिल्पके उदाहरणोमें खंडगिरि - उदयगिरि, (उड़ीसा) के निम्न तीन चित्र है
-
खंडगिरी तत्व गुफा नं. २ की एक टोडी पर एक देव-दम्पति मदार वृक्ष के सान्निध्यमे प्रदर्शित किये गये है । युवक सप्ततन्त्री वीणा बजा रहा है और युवती स्वरलयानुसार नाच रही है। युवककी मौलिमणि युक्त पगडी और सुन्दरीके कर्ण, ग्रीवा और पोहचीके आभूषण तथा कटिमेखला ई.० पू० प्रथम शताब्दीके प्राचीन भास्कर-कलादर्शको प्रकट करते है । अंग-भंगसे कठरेचि तक और कटिरेचि तक सूचित होता है जो बड़ी सुन्दरतासे चित्रित हुआ है । (चित्र नं० १) ।
उदयगिरिकी रानी गुफाके ऊपरकी मंजिल के दृश्योमे ८ वे शिलाचित्र में एक स्त्री बैठी हुई महिला संगीत मंडली का समारोह देख रही है। उस के चारो ओर प्रसाधिकाएं खड़ी है। तीन नर्तकियां विभिन्न हावभावोको प्रदर्शित करती हुई नाच रही है। वादित्रों में वीणा तथा अंक्य और ऊध्वंक मृदंग और करताल (हाथोंसे ताल देना ) प्रदर्शित किये गये है । (चित्र नं० २ ) ।
उदयगिरिकी रानी गुफाफी नीचेकी मंजिल में महिलाओंका एक नृत्य-दृश्य अकित किया गया है । नाट्यमंडपमे एक नर्तकी नृत्य कर रही है। संगीतकर्म ऊर्ध्वक और अंक्यमृदग, वीणा और मकर-मुख- वेणु ( वशी) हैं। यह चित्र अनेकांतकी गत प्रथम किरण ( सर्वोदयतीर्याक) में नं. ७ के रूपमें प्रकाशित हो चुका है।
मथुराके कंकाली टीलेसे प्राप्त एक प्रस्तर-फलकमें भगवान् महावीरके गर्भकल्याणकके उपलक्षमें स्वर्गकी देवियों द्वारा मांगलिक नृत्य, गीत, बादित्र- समारोह
१२७