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________________ १२८ बनेकान्त बड़ा मन्दिर है। इसकी छत पर अनेक रंगीन भित्तिचित्र है, उपर्युक्त सब प्रस्तर-चित्र और भित्तिचित्र पवित्र जिनमें आदिनाथ नेमिनाथ और वर्द्धमानके जीवन चित्रित स्थानोंमें उपलब्ध हैं, इससे इनका सम्बन्ध पूजा प्रार्थना किये गये है। इनमेंसे ८४ चित्र श्री टी. एन. रामचन्द्रन् आदिसे है ।। ने अपनी (Tiruparuttikunram and Its अहंन्तोंकी मूर्तियोंमें अष्ट प्रातिहार्योके अन्तर्गत Temples) नाम की २५० पृष्ठोंकी वृहत् पुस्तकमें देवदुंदुभि रहती है जो एक गंभीर नाद करनेवाली बड़ी सन् १९३४ में प्रकाशित किये थे। यह पुस्तक जैन भेरी होती है। शिल्प-कलाका महाकोश है । इन चित्रोंमें संगीत अन्तमें हम हाथी गुफा (उदयगिरि) के शिलालेख(नृत्य, गीत, वादित्र) को प्रदर्शित करनेवाले चित्र की पांचवी पक्तिको यहां दिये देते है जिसमें कलिंगके नं. २,२०,४२,४५,५३,५४,५७,५८,६१ और ७४ है। महाराज खारवेलके शासनके तृतीय वर्षके सम्बन्धमें इनमें से यहां नं. ४२ और ५८ के चित्र दिये जाते है। लिखा है नं. ४२-इसमें तीन देवियां नृत्य कर रही है और "गंषव-वेद-बुधो बंप-मत-गीत-वादित संबंसनाहि तीन देव झल्लरी, मृदंग और मसकबीणा बजा रहे हैं। उसव-समाज कारापनाहिचकोडापयति नार।" हाथी पर एक देव मुरज बजा रहा है और एक अश्वारोही अर्थात्---गाधर्ववेदमे सुनिपुण महाराज खारवेलने देव तुरी बजा रहा है । (चित्र नं. ५) नृत्य-गीत-वादित्रके सदर्शनोसे उत्सव, समाज (नाटक, नं. ५८-इसमें स्वर्ग की देवियां नृत्य कर रही दंगल आदि) कराते हुए नगरीको आमोदित किया । है। (चित्र नं. ६) कलकत्ता, ता० २८-३-१९५२ नागौरके भट्टारकीय भंडारका अवलोकन ( श्री अगरचन्द नाहटा ) राजस्थानमें नागौर एक प्राचीन स्थान है। दशवी नाथजीके ज्ञानभंडारमें अवलोकनमें आई है जो नागौरमें शताब्दीसे जैन समाजका नागौरसे अच्छा सम्बन्ध निरतर लिखी गई है और इसके प्रथम और अंतके पत्रमें अपभ्रंश रहा है । मेरे अवलोकन में जैन साहित्यमें नागौरका प्राचीन शैलीके चित्र है जो राजस्थान एवं गुजरातादि चित्रशैलीकी उल्लेख सं० ९१५मे रचित जयसिंहसूरिकी 'धर्मोपदेशमाला में एकताका परिचय देते है। मिलता है । ११ वी शतीमें तो यहां पर जैन समाजका विशेष नागौर में कई श्वेतांबर मदिर है जिनमें पीतलकी १० वी प्रभाव रहा है। श्री जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि आदि यहां शताब्दीकी भी कुछ प्रतिमायें है, संभव है वे बाहरसे आईं हों। पधारे थे और वादिदेवसूरि भी यहां रहते थे। इसीसे इनकी यहां पर जो प्राचीन जैनमंदिर थे, वे बीचकी कई शताब्दियोंमें परम्पराका नाम नागपुरीय पागच्छ पड़ा है, जिसका पीछे राज्यपरिवर्तन होते रहने के कारण मुसलमानशासकोके समय पावचन्द्रसूरिसे 'पारर्वचंद्र' गच्छ नाम प्रचलित हुआ । १६वी नष्ट हो गये प्रतीत होते है। फलतः नागौरचत्य परिपाटी जो शतीमें लोंकागच्छका भी यहां अन्वय बढ़ा और यहांके जैनसत्यप्रकाशमें मैने प्रकाशित की है उसमें उल्लिखित मदिर रूपजी आदि लोंकागच्छमें दीक्षित हुए। उनकी परंपरा भी अब नही रहे। संभव है कुछ मंदिरोंकी मूलानायक प्रतिमाएं 'नागौरी लोकागच्छ' के नामसे प्रसिद्ध है। धर्मघोषगच्छके खंडित हो जानेसे बदल दी गई हों अथवा यवनोंद्वारा उन आचार्योका भी यहां अच्छा प्रभाव रहा है। ओसवाल वंशका मंदिरोंको भी नष्ट कर दिया गया हो। ११०० वर्षों से श्वेतासुराणागोत्र इसी धर्मघोषगच्छके आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठोदित म्बर संप्रदायका वहाँ प्रभाव तो स्पष्ट ही है। अकबरके है। आज भी इस गच्छके गोपजी गुरांसा वहां रहते हैं। १५वीं समय राजा भारमल श्रीमाल (जिनका गुणगान दिगंबर कविशताब्दिकी लिखित पांडवचरित्रकी प्रति, जोधपुर केशरिया- राजमल्लने अपने पिंगलग्रंथमें किया है) मूलत: यहीं के
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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