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________________ किरण १०] हेमराज गोदीका और प्रवचनसारका पद्यानुवाद ! ३५१ ताते तजि व्यवहार नय, गहि निह● परवान । हुभावीय विषयोंसे समुद्र में स्थित जहाज पर बैठे हुए अन्य विन्हके बजसी पाइये, परममातम गुन ग्यान ॥ पाश्रय हीन पलीके समान मनको चंचलताको रोक कर जो एक जाणित्ता मादि पर अप्पगं विशुद्धप्पा । अपने स्वकीय सहज परमानन्द स्वभावमें निश्चय भावसे सागारोऽणागारो खबेदि सो मोह दुग्गठिं ॥२-१२॥ स्थापित करता हैं वही पुरुष अपने शुद्ध स्वरूपका ध्याता इस गाथामें शुद्धामाकी प्राप्तिसे क्या लाभ होता है है। मूलगाथाके इसी भावको कवि हेमराजने निम्न पद्योंमें यह बतलाते हुए प्राचार्य कहते हैं कि जो सागार अथवा कितने अच्छे ढंगसे अनूदित किया है:अनागार अविनाशी प्रात्मस्वरूपका चिन्तन करता है, पदरी-मोह मैल जब कियोदरि, विषय ममस्व न रह्यौ भूरि उसी शुद्धास्माका ध्यान करता है वह संसार बंधनकी करने मनकी पुनि चंचलता मिटीवानि,समतापद थिर हेरको पानि वाली उस सदमोह-प्रन्थिका नाश करता है। यही भाव सोई परमातम ध्यान धार. जर मरन छडि सो गयो पार । निम्न पद्यमें अंकित है: तातें परमातम ध्यान जानि, एक परम शुद्धकारणबखानि ।। जो शिहदमोहगठी रागपहासे खवीय सामरणे। जैसे जलधि माहिमोहनकौं उरि-उडि खग बैठत नहि ठौर । होज्जं सम-सुह-दुक्खो सोवखे अक्रू ये लहदि । चहुँदिशि सजिल व्यंट नहि दीसत तिहिथिररूप भयो निरदौर। जो श्रावक मुनि यौं ध्यावे, निर्मल शुद्धतम पद पावें। स्याहीमनि जब तज्यो विषय-सुख गहि समता नर महि कहुँ और सो ही मोहगंठिको खोलें, भव-सागरमें बहुरि न डोलें ॥ वात जो समता पद धारक सो मुनि सदाजगत शिरमौर । . इस गाथामें बतलाया गया है कि जो पुरुष मोहगांठ- उपर दिये हुए मूल गाथाओंके पचानुवादसे पाठक का भेदन करता है वह यति अवस्थामें होनेवाले राग-द्वेष कविकी कविताका श्रास्वादन कर यह निश्चय कर सकते रूप विभाव-भावोंको विनष्ट करके सुख-दुश्वमें सम- किकवने क्या कुछ परिश्रम किया है । यद्यपि कविता दृष्टि होता हुआ अक्षय सुग्वको प्राप्त करता है। यही भाव साधारण है उसमें भावों एवं पदोंका जालित्य और भलंकारिनिम्न परमें कविने निहित किया है। . कता का वह चमत्कारी रूप नहीं है, फिरभी कविता प्रन्थगत जब जिय मोह गांठि उरभानी, राग-दोष तजि समता पानी। भावोंको स्फुट करनेमें समर्थ है, और वह सरल भी है। ममता जहाँ न सुम्ब-दुख ब्यापै, तहान बन्ध पुण्य अरू पापै ॥ कवि की सबसे बड़ी मजबूरी यह थी कि उसे ग्रंबके अनुसो मुनिराज निराकुल कहिये, सहज आतमीक सुख लहिये। सार अपने भावोंको व्यक्त करनेके साथ छन्दरूपमें परितातै मोहगांठि मुनि खोलें भुजत शिव-सुख अधिक श्रतोलें॥ एत करना पड़ा है। यह ग्रंथ अभी तक अप्रकाशित है। जो खविदमोहकलुसो विसयविरत्नो मणो णिरूभित्ता। क्या कोई जैन साहित्यका भक्त इसकृतिको प्रकट कराने में समवद्विदो सहावे अप्याणं हवदि झादा ॥२१०४ अपना आर्थिक सहयोग देकर जगतकी ज्ञान पियासाको इस पद्यमें बतलाया गया है कि जो पुरुष मोहरूपी दूर करने का यत्न करेगा। मैलका सय करता है, पंचेन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त -वीर सेवामन्दिर ता०-२१-१२-१२ कुछ अज्ञात जैन ग्रन्थ (पं० हीरालाल जैन सिद्धान्त शास्त्री) महा कवि पं० आशाधरजीने जिन अनेकों ग्रन्थोंकी मैने जब दोनों टीकाओंको सामने रखकर उनका मिलान रचना की है, उनमें एक जिनसहस्रनाम स्तवन भी है। किंया, तो पता चला कि भाशापरकी स्वोपज्ञवृत्तिको ही उस पर भी उन्होंने अपने अन्य ग्रन्थोंके समान स्वोपज्ञवृत्ति प्राधार बनाकर श्रुतसागरने अपनी टीकाका निर्माण किया लिखी है, जोकि अभी तक अनुपलब्ध थी। हालहीमें मुझे है। जहां पाशाधरजीने किसी एक नाम पर २-३ ही अर्थ पुराने अन्योंकी खोज करते हुए उसकी एक प्रति मिली है। किये हैं। वहां श्रतसागरने 10-11 तक अर्थ करके अपने पं० पायाधरजीके सहस्रनाम पर श्रुतसागरसूरिने भी श्रुतसागर नामको चरितार्थ किया है। एक टीका लिखी है, जो अनेकों मंडारोंमें पाई जाती है। श्रुतसागरने अपनी उकटीकामें लगभग ३२ प्राचार्यो
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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