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________________ - ३५२] अनेकान्त [किरण १० के नामों और उनके प्रन्योंका उल्लेख किया है। जिनमें (२) एक स्थान पर प्रवीन्द्रिय शानकी व्याख्या करते कई गांचायाँके नाम वा अन्य एकदम भावपूर्ण है। हुए श्रुतसागर लिखते-उतखंडेन महाविनापाठकोंकी जानकारीके लिए यहां उनका उल्लेख मय सम्वएह अणिदिउणाणमगे जो मयमूदुन पत्सियइ। उद्धरण के किया जाता है:- सोणिदिउ पचिदिय णिरउ बइतरणिहि पणिउ पिवइ ॥१ (७)'द' शब्द किन किन मोंका वाचक है, इसे इस रचनाको देखनेसे ज्ञात होता है कि खंडमहाकविने बतलाते हुए वे लिखते हैं तथा चोक-विश्वशम्भुमुनि- अपभ्रंशमें किसी महाकाव्यकी रचनाकी है जिससे कि प्रणीतायामेकाक्षरनाममालायाम श्रुतसागरने उन्हें महाकविके नामसे उल्लेख किया है। अपभ्रंश भाषाके जितने कवि और उनके द्वारा रचित दो दाने पूजने क्षीणे दानशौंडे च पालके । अब अभी तक सामने आये है, उनमें खंडमहाकविका देखे दीप्तौ दुराधर्षे दो भुजे दीर्घदेशके ॥१॥ नाम एक विशिष्ट एवं प्रभुतपूर्व ही समझना चाहिए। दयायां दमने दीने दंदकेऽपि दः स्मृतः। यही पद्य अन्यत्र श्रुतसागरने 'उक्त च काम्यपिशाचेन' बढेच बन्धने बोधे वाले बीजे बलोदिते ॥२॥ कहकर भी उद्धृत किया है। विदोषेपि पुमाने ष चालने चीवरे वरे । (४) एक स्थल पर योगकी म्याख्या करते हुए इस उल्लेखसे पता चलता है कि विश्वशम्भुमुनिने पननन्दि-रचित सद्वोधचन्द्रोदय नामके एक ग्रन्थका . एकाक्षर-नाममाला नामक अन्य रचा था, जो कि एक उल्लेख कर उसके एक श्लोकको उद्धत किया है। यथाएक मरके अनेकों प्रौँका प्रतिपादक था। विमन स्थलों पर इस ग्रन्थके भनेक श्लोक उद्धृत किये गये हैं। उक्त च पद्मनन्दिना मद्बोधचन्द्रोदये(२) दुगसिंह नामके किसी योगतो हि लभते विवन्धनं योगतोऽपि खल मच्यते नरः। योगवर्त्म विषमं गुरोगिरा बोध्यमेतदखिलं मुमुक्षुणा ॥१॥ सरस्वतीस्तोत्रका एक पच उद्धत करते हुए श्रुतसागरसूरि बिखते हैं:-उफ'च महत्वं सरस्वत्या दुर्गसिंहन कविना- पचनन्दि नामके अनेक प्राचार्योंसे पाठक परिचित है. पर यह सदधचन्द्रोदय नाम प्रथम बार ही परिचयमें शब्दात्मिकाया त्रिजगद्विभनि स्फुरद्विचित्रार्थसुधास्रपंति । प्रारहा है। या बुद्धिरीड्या विदुषांहदब्जे मुखे चसा मे वशमस्तु नित्यम् (५) एक प्रकरणमें रात्रिभोजनके दोषोंको बतबाते इस दरबको देखते हुए सहजमें ही अनुमान होता हुए लिखा है। उकप्रभाचन्द्रगणनाकि यह एक उत्तम सरस्वतीस्तोत्र रहा होगा। श्रुतसागर- विरूपो विकलांगः स्यादल्पायुः रोगपीडितः। ने एक अन्य स्थल पर. दुर्गसिंहके नामसे एक और भी दुर्भगो दुःकुलश्चेव नक्तभाजी सदा नरः ।। रखोक उद्धृत किया है, जिसमें बताया गया है कि कौन- इस उद्धरणके मागे रात्रिभोजन स्वागका फल बताते कौनसे शब्द पुल्लिंग। इस श्लोकको उडत करते हुए हए एक और श्लोक उरत किया है, जो संभवतः उन्हीं श्रतसागर लिखते हैं:-विशेषेण यज्ञनाम्नः पुंसवं । प्रभाचन्द्रगणिका ही प्रतीत होता है। वह इस प्रकार हैतथा चोक्त दुर्गसिंहेन निजकुलैकमंडनं त्रिजगदीशसम्पदं । • स्वर्ग-दिनमान-संवत्सर-नर-यज्ञ-मुचकेशमासत।। भजति यः स्वभावतात्यजति नक्तमोजनम् ||२|| अरि-र-जलदमलधिविषसुगस्यात्मभुजभुजगा.॥ प्रभाचन्द्र नामके अनेक विद्वान एवं प्राचार्य परिचयमें , शरनखकपोलकदन्तपकगुल्मोष्ठकठरएमानीला। पाये है, प्रभाचन्द्र गणी के नामसे संभवतः यह पहलाही एषां संज्ञा धान्यान्युक्तो नाडीव्रणः पंडः ॥ उल्लेख प्राप्त हुआ है। इस उल्लेखसे ज्ञात होता है कि ये दुर्गसिंह काव्य (६)सी जिनसहनवामकी टीकामें श्रुतसागरने और पाकरवशाखके अच्छे विद्वान् रहे है और उन्होंने धर्मचक्रका स्वरूप कहते हुए श्री देव न्दिके नामसे एक दोनों विषयों पर अपनी लेखनी चलाई। श्लोक उद्धृत किया है, जो इस प्रकार है:
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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