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________________ २३० अनेकान्त [वर्ष ११ -- गृहिगां वा तिष्ठत्यणु-गुण-शिक्षा-प्रतात्मकं चरणम् । जाता है कि यहां कारणमें कार्यका उपचार करके पापके पंच-त्रि-चतुर्भेवं त्रयं ययासंल्यमापनम् ॥५१॥ कारणोंको 'पाप' कहा गया है । वास्तवमें पाप मोहनीयादि 'गृहस्योका (विकल) चारित्र अणुव्रत-गुणव्रत-शिक्षा- कर्मोकी वे अप्रशस्त प्रकृतिया है जिनका आत्मामें आस्रव व्रतरूपसे तोन प्रकारका होता है। और वह व्रतत्रयात्मक तथा बन्ध इन हिंसादिरूप योगपरिणतिसे होता है और चारित्र क्रमशः पांच-तीन-चार भेदोंको लिये हुए कहा गया इसीसे इनको 'पापप्रणालिका' कहा गया है । स्वयं ग्रन्थकार है-अर्थात्, अणुव्रतके पाच, गुणव्रतके तीन और शिक्षाव्रत महोदयने अपने स्वयम्भूस्तोस्त्रमें 'मोहरूपो रिशुः पापः कषायभंटसाधनः' इस वाक्यके द्वारा 'मोह' को उसके के चार भेद होते हैं।' क्रोधादि-कषाय-भटो-सहित 'पाप' बतलाया है और देवागम विकल चारित्रके इन भेदों तथा उपभेदोका क्रमशः (९५)तथा इस ग्रन्थ (का. २७) में भी 'पापासव' जैसे शब्दोवर्णन करते हुए स्वामीजी लिखते है: का प्रयोग करके कर्मोकी दर्शनमोहादिरूप अशुभ प्रकृतियोंप्रागातिपात-वितव्याहार-स्तेय-काम-मूर्छाभ्यः को ही 'पाप' सूचित किया है। तत्त्वार्थसूत्रमें श्री गृध्रपिच्छास्यूलेभ्यः पापेभ्यः व्युपरमगमणुव्रतं भवति ॥५२॥ चार्यने भी 'अतोऽन्यत्पापं' इस सूत्रके द्वारा सातावेदनीय, 'स्थूल प्राणातिपात-मोटे रूपमें प्राणोके घातरूप शुभआयु, शुभनाम और शुभ (उच्च) गोत्रको छोड़कर स्थूलहिंसा, स्थूल वितथव्याहार-मोटे रूपमें अन्यथा कथन शेष सब कर्मप्रकृतियोको 'पाप' बतलाया है। दूसरे भी रूप स्थूल असत्य, स्थूलस्तेय-मोटे रूपमे परधनहरणादि पुरातन आचार्योका ऐसा ही कथन है । अतः जहा कही भी रूप स्थूल चौर्य (चोरी), स्थूल काम-मोटे रूपमे मैथुन- हिसादिकको पाप कहा गया है वहां कारणमें कार्यकी दृष्टि सेवारूप स्थूल अब्रह्म, और स्थूलमूर्छा-मोटे रूपमें सनिहित है, ऐसा समझना चाहिए। ममत्वपरिणामरूप स्थूल-परिग्रह, इन (पांच) पापोसे जो संकल्पात्कृत-कारित-मननाद्योग-त्रयस्य चर-सत्वान् । विरक्त होना है उसका नाम 'अणुव्रत' है। न हिनस्ति यत्तदाहुः स्थूल-वधाद्विरमणं निपुणाः ॥५३॥ व्याख्या-यहां पापोके पांच नाम दिए है, जिन्हे अन्यत्र 'संकल्पसे-सकल्पपूर्वक (इरादतन) अथवा शुद्ध दूसरे नामोंसे भी उल्लेखित किया है, और उनका स्थूल स्वेच्छासे-किए गए योगत्रयके-मन-वचन-कायके-कृतविशेषण देकर मोटे रूपमे उनसे विरक्त होनेको 'अणुव्रत' कारित-अन मोदनरूप व्यापारसे जो त्रस जीवोंका लक्ष्यबतलाया है। इससे दो बातें फलित होती है-एक तो यह कि भूत द्वीन्द्रियादि प्राणियोका-प्राणघात न करना है उसे इन पापोका सूक्ष्मरूप भी है और इस तरहसे पाप स्थूल- निपुणजन (आप्तपुरुष वा गणधरादिक) 'स्थूलवधविरमण' सहमके भेदसे दो भागोमें विभक्त है। अगली एक कारिका --अहिंसाऽण व्रत-कहते है । ('सीमान्तानां परतः' नं. ९५) में स्थूलेतरपंचपाप ध्याल्या-यहा 'संकल्पात्' पद उसी तरह हेतुरूपमें संत्यागात्' इस पदके द्वारा इन पाच पापोंके 'स्थूल' और प्रयुक्त हुआ है जिस तरह कि तत्त्वार्थसूत्र में 'प्रमत्तणेगात्' 'सूक्ष्म' ऐसे दो भेदोंका स्पष्ट निर्देश भी किया गया है और और पुरुषार्थसिद्धयुपायमे 'कषाययोगात्' पदका प्रयोग पाया ६८ वी तथा ७० वों कारिकाओंमें सूक्ष्मपापको 'अणुपाप' जाता है*, और यह पद आरम्भादिजन्य त्रसहिंसाका निवर्तक नामसे और ५७ वी कारिकामें स्थूल पापको 'अकृश' (अग्राहक) तथा इस व्रतके व्रतीकी शुद्ध स्वेच्छा अथवा शब्दसे उल्लेखित किया है, इससे 'अणु' और 'कृश' भी सूक्ष्मके स्वतंत्र इच्छाका सद्योतक है । और इसके द्वारा व्रतकी नामान्तर है। दूसरी बात यह कि सूक्ष्मरूपसे अथवा पूर्णरूपसे इन पापोंसे विरक्त होनेका नाम 'महाव्रत' है, जिसकी अणुताके अनुरूप जहा त्रसहिंसाको सीमित किया गया है वहां सूचना कारिका ७०,७२ और ९५ से भी मिलती है। ___ * "प्रमत्तयोगात्माणव्यपरोपणं हिंसा" इसके सिवाय, जिन्हें यहां 'पाप' बतलाया गया है उन्हें तत्वार्षसूत्र ७-१३ ही चारित्रका लक्षण प्रतिपादन करते हुए पिछली एक कारिका "यत्वल कवाययोगात्प्राणानां द्रव्य-भाव-रूपाणां । (४९) में 'पापप्रणालिका' लिखा है, और इससे यह जाना व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिसा॥पुरु
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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