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समन्तभद्र-वचनामृत
स्वामी समन्तभद्रने, अपने समीचीन-धर्मशास्त्रमें, (पूर्वनिर्दिष्ट हिंसादि-विरति-लक्षण) चारित्र 'सकल' सम्यक्चारित्रका वर्णन करते हुए, जिस वचनामृतकी वर्षा
(परिपूर्ण) और 'विकल' (अपूर्ण) रूप होता हैकी है उसका कुछ रसास्वादन यहां अनेकान्तके पाठकोंको
महाव्रत-अणुव्रतके भेदसे उसके दो भेद है । सर्वसंगसेकराया जाता है:
बाह्य तथा आभ्यन्तर दोनों प्रकारके परिग्रहसे-विरक्त हिंसा-ऽनृत-चौर्येभ्यो मैथुनसेवा-परिपहाभ्यां च। पाप-प्रणालिकाभ्यो विरतिः संज्ञस्य चारित्रम् ॥४९॥
गृहत्यागी मुनियोंका जो चारित्र है वह सकलचारित्र 'हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुनसेवा और परिग्रह रूप जो
(सर्व संयम) है, और परिग्रहसहित गृहस्थोंका जो चारित्र पाप-प्रणालिकाएं है-पापास्रवके द्वार हैं, जिनमें होकर ह वह विकलचारित्र (दशसयम) है।" ही ज्ञानवरणादि पाप-प्रकृतियां आत्मामें प्रवेश पाती हैं और व्याल्या-यहां चारित्रके दो भेद करके उनके इसलिये पापरूप है-उनसे जो विरक्त होना है-तद्रूप प्रवृत्ति स्वामियोंका निर्देश किया गया है । महाव्रतरूप सकलचारित्रन करना है-वह सम्यग्ज्ञानीका चारित्र अर्थात् सम्यक् के स्वामी (अधिकारी) उन अनगारों (गृहत्यागियों) को चारित्र है।'
बतलाया है जो संपूर्णपरिग्रहसे विरक्त है, और अणुव्रतरूप व्याख्या-यहां 'संज्ञस्य' पदके द्वारा सम्यक् चारित्र विकलचारित्रके स्वामी उन सागारों (गृहस्थों) को प्रकट के स्वामीका निर्देश किया गया है और उसे सम्यग्ज्ञानी किया है जो परिग्रहसहित हैं और इसलिये दोनोंके 'सर्वसंगबतलाया गया है। इससे स्पष्ट है कि जो सम्यग्ज्ञानी नहीं विरत' और 'संसंग' इन दो अलग अलग विशेषणोंसे स्पष्ट उसके सम्यक्-चारित्र होता ही नहीं-मात्र चारित्र-विषयक है कि जो अनगार सर्वसंगसे विरक्त नहीं है-जिनके मिथ्याकुछ क्रियाओंके कर लेनेसे ही सम्यक् चारित्र नहीं बनता, स्वादिक कोई प्रकारका परिग्रह लगा हुआ है- गृहउसके लिये पहले सम्यग्ज्ञानका होना अति आवश्यक है। त्यागी होनेपर भी सकलचारित्रके पात्र या स्वामी नहीं
हिंसाके लिये इसी ग्रंथमें आगे, 'प्राणातिपात' यथार्थमें महाव्रती अथवा सकलसंयमी नहीं कहे जा सकते; (प्राणव्यपरोपण,प्राणघात), 'वध' तथा 'हति' का; अनृत- जैसे कि द्रव्यलिंगी मुनि, आधुनिक परिग्रहधारी भट्टारक के लिये 'वितथ', अलीक' तथा मृषाका एवं फलितार्थ- तथा ११ वी प्रतिमामें स्थित क्षुल्लक-ऐलक । और जो सागार के रूपमें असत्यका; चौर्यके लिये 'स्तेय' का; मैथुनसेवा- किसी समय सकलसंगसे विरक्त है उन्हें उस समय गृहमें के लिये 'काम' तथा 'स्मर' का एवं फलितार्थ रूपमें 'अब्रह्म' स्थित होने मात्रसे सर्वथा विकलचारित्री (अणुव्रती) नहीं का; और परिग्रहके लिये 'संग', 'मूर्छा' (ममत्वपरिणाम) कह सकते वे अपनी उस असंगदशामें महाव्रतकी ओर तथा 'इच्छा' का भी प्रयोग किया गया है। और इसलिये बढ़ जाते है। यही वजह है कि ग्रंथकार महोदयने सामायिकमें अपने अपने वर्गके इन शब्दोंको एकार्थक, पर्यायनाम स्थित ऐसे गृहस्थोंको 'यति भावको प्राप्त हुआ मुनि' अथवा एक दूसरेका नामान्तर समझना चाहिए। लिखा है (कारिका १०२) और मोही मुनिसे निर्मोही सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्वसंग-विरतानाम् । गृहस्थको श्रेष्ठ बतलाया है (का. ३३)। और इससे यह नतीजा अनगाराणा, विकलं सागाराणां ससंगानाम् ॥५०॥ निकलता है कि चारित्रके 'सकल' या 'विकल' होनेमें प्रधान
+देखो, हिसावर्गके लिए कारिका ५२,५३,५४,७२,७५ कारण उभय प्रकारके परिग्रहसे विरक्ति तथा अविरक्ति से ७८,८४; अनृतवर्गके लिए कारिका ५२,५५,५६, है-मात्र गृहका त्यागी या अत्यागी होना नहीं है । अतः चौयंवर्गके लिए कारिका ५२,५७ मधुनसेवावर्गके लिए 'सर्वसंगविरत' और 'ससंग' ये दोनों विशेषण अपना खास कारिका ५२,६०,१४३; और परिग्रहवर्गके लिए कारिका महत्व रखते हैं और किसी तरह भी उपेक्षणीय नहीं कहे ५०,६१।
जा सकते।