SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समन्तभद्र-वचनामृत २३१ यह भी सूचित किया गया है कि इस (संकल्प) के बिना वह तथा दूसरे किसी प्रतिबन्धादिके द्वारा शरीर (संकल्पी) असहिंसा नही बनेगी । और यह ठीक ही है; और वचनपर यथेष्ट-गति-निरोधक अनुचित रोक-थाम क्योंकि कारणके अभावमें तज्जन्य कार्यका भी अभाव होता लगाना-, पीडन-दण्ड-बाबुक-वेत आदिके अनुचित है। और इस 'संकल्पात्' पदकी अनुवृत्ति अगली 'सत्याणुव्रत' अभिघात-द्वारा शरीरको पीड़ा पहुंचाना तथा गाली आदि आदिका लक्षण प्रतिपादन करनेवाली कारिकाओंमें उसी कटुक वचनोंके द्वारा किसीके मनको दुखाना-, अतिभाराप्रकार चली गई है जिस प्रकार कि तत्त्वार्थसूत्र में 'प्रमत्त रोपण-किसी पर उसकी शक्तिसे अथवा न्याय-नीतिसे योगात्' पदकी अनुवृत्ति अगले असत्यादिके लक्षण-प्रतिपादक अधिक कार्यभार, करभार, दण्डभार तथा बोझा लादना--, सूत्रोमें चली गई है। और आहार-वारणा-अपने आश्रित प्राणियोके अन्न-पानाशुद्ध स्वेच्छा अथवा स्वतत्र इच्छा ही संकल्पका प्राण है, इसलिए वैसी इच्छाके बिना मजबूर होकर जो अपने दिका निरोध करना, उन्हें जानबूझकर शक्ति होते यथासमय प्राण, धन, जन, प्रतिष्ठा तथा शीलादिकी रक्षाके लिए और यथापरिमाण भोजन न देना-, ये पांच स्थूलवधविरोधी हिंसा करनी पडे वह भी इस व्रतकी सीमासे बाहर विरमणके अहिंसाऽणुव्रतके-अतीचार है-सीमोल्लंघन है । इस तरह आरम्भजा और विरोधजा दो प्रकारकी अथवा दोष है।' त्रसहिंसा इस संकल्पी त्रसहिंसाके त्यागमें नही आती। पंच- व्याख्या-यहां जिस सीमोल्लंघन अथवा दोषके लिए सूना और कृषिवाणिज्यादिरूप आरम्भ-कार्योंमें तो किसी 'व्यतीचार' शब्दका प्रयोग किया है उसीके लिए ग्रन्थमे आगे व्यक्तिविशेषके प्राणाघातका कोई संकल्प ही नही होता, क्रमशः व्यतिक्रम, व्यतीपात, विक्षेप, अतिक्रमण, अत्याश, और विरोधजा हिसामें जो सकल्प होता है वह शुद्ध व्यतीत, अत्यय, अतिगम, व्यतिलंघन और अतिचार शब्दोंका स्वेच्छासे न होनेके कारण प्राणरहित होता है, इसीसे इन प्रयोग किया गया है*, और इसलिए इन सब शब्दोंको दोनोंका त्याग इस व्रतकी कोटिमे नही आता । इन दोनों एकार्थक समझना चाहिए। प्रकारकी हिंसाओकी छूटके बिना गृहस्थाश्रम चल नही सकता, स्थूलमलीकं न वदति न परान्वावयति सत्यमपि विपदे। राज्य व्यवस्था बन नही सकती और न गृहस्थजीवन व्यतीत यत्तद्वदन्ति सन्तः स्थूलमृषावाव-बैरमणम् ॥५५॥ करते हुए एक क्षणके लिए ही कोई निरापद या निराकुल '(संकल्पपूर्वक अथवा स्वेच्छासे) स्थूल अलीककोरह सकता है। एक मात्र विरोधिहिंसाका भय कितनोंको ही मोटे झूठको-जो स्वयं न बोलना और न दूसरोसे बुलवाना दूसरोके धन-जनादिकी हानि करनेसे रोके रहता है। है, तथा जो सत्य विपदाका निमित्त बने उसे भी जो स्वय न यहापर इतना और भी जान लेना चाहिए कि 'हिनस्ति' बोल बोलना और न दूसरोसे बुलवाना है, उसे सन्तजन-आप्त पदके अर्थरूपमें, हिंसाके पूर्वनिर्दिष्ट पर्यायनाम 'प्राणाति पुरुष तथा गणधरदेवादिक-स्थूलमृषावाद वैरमण'पात' को लक्ष्यमें रखते हुए प्राणाघातकी जो बात कही गई। है वह व्रतकी स्थूलतानुरूप प्राय: जानसे मारडालने रूप सत्याणुव्रत-कहते हैं।' प्राणघातसे सम्बन्ध रखती है, और यह बात अगली कारिका व्याख्या-यहा स्थूल अलीक अथवा मोटा झूठ क्या? मे दिए हुए अतीचारोको देखते हुए और भी स्पष्ट हो जाती यह कुछ बतलाया नही-मात्र उसके न बोलने तथा न बुलहै । क्योकि छेदनादिक भी प्राणघातके ही रूप है, उनका वानेकी बात कही है, और इसलिए लोकव्यवहारमें जिसे समावेश यदि इस कारिका-वणित प्राणघातमें होता तो उन्हें मोटा झूठ समझा जाता हो उसीका यहां ग्रहण अभीष्ट जान अलगसे कहने तथा 'अतीचार' नाम देनेकी जरूरत न रहती। पड़ता है। और वह ऐसा ही हो सकता है जैसा कि शपथअतीचार अभिसन्धिकृत-व्रतोंकी बाह्य सीमाएं है। साक्षीके रूपमे कसम खाकर या हलफ़ उठाकर जानते-बूझते छबन-बन्धन-पीडनमतिभारारोपणं व्यतीचाराः ।। अन्यथा (वास्तविकताके विरुद्ध) कथन करना, पंच या जज आहारवाणाऽपि च स्थूलवषाव्यपरतेः पंच ॥५४॥ (न्यायाधीश)आदिके पदपर प्रतिष्ठित होकर अन्यथा कहना 'छेदन-कर्ण-नासिकादि शरीरके अवयवोंका परहित- *देखो, कारिका नं. ५६,५८,६२,६३,७३,८१,९६, बिरोपिनीवष्टिसे छेदना-भेदना-मन्धन-रस्सी, जंजीर १०५११०,१२९ ।
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy