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[वर्ष
कहलाना या निर्णय देना, धर्मोपदेष्टा बनकर अन्यषा उपदेश किसीकी विपदाका कारण हो, यह एक खास बात है और देना और सच बोलनेका आश्वासन देकर या विश्वास दिला- इससे यह साफ सूचित होता है कि अहिंसाकी सर्वत्र प्रधानता कर झूठ बोलना (अन्यथा कथन करना) । साथ ही ऐसा है, अहिंसावत इस व्रतका भी आत्मा है और उसकी अनुझूठ बोलना भी जो किसीकी विपदा (संकट वा महाहानि) वृत्ति उत्तरवर्ती व्रतोंमें बराबर चली गई है। का कारण हो; क्योकि विपदाके कारण सत्यका भी जब परिवाब-रहोऽभ्याझ्या पैशून्यं कूटलेखकरणं च । इस व्रतके लिए निषेध किया गया है तब वैसे असत्य बोलने न्यासापहारिता व्यतिक्रमाः पंच सत्यस्य ॥५६॥ का तो स्वतः ही निषेध हो जाता है और वह भी स्थूलमषा- 'परिवाद-निन्दा-गाली-गलौच, रहोभ्याख्या-गुह्य वादमें गभित है । और इसलिए अज्ञानताके वश (अजान- (गोपनीय) का प्रकाशन, पैशून्य-पिशुनव्यवहार-चुगली, कारी) या असावधानी (सूक्ष्मप्रमाद) के वश जो बात
तथा कूटलेखकरण-मायाचारप्रधान लिखावट-द्वारा जालबिना चाहेही अन्यथा कही जाय या मुंहसे निकल जाय उसका
साजी करना अर्थात् दूसरोंको प्रकारान्तरसे अन्यथा विश्वास स्थूल मृषावादमें ग्रहण नहीं है। क्योंकि अहिंसाणुव्रतके
करानेके लिए दूसरोंके नामसे नई दस्तावेज या लिखावट लक्षणमें आए हुए 'संकल्पात् ' पदकी अनुवृत्ति यहां भी है।
तैयार करना, किसीके हस्ताक्षर बनाना, पुरानी लिखावटजैसाकि पहले उसकी व्याख्यामें बतलाया जा चुका है। इसी
में मिलावट अथवा काट-छांट करना या किसी प्राचीन तरह ऐसे साधारण असत्यकी भी इसमें परिगणना नहीं है
ग्रन्थमेंसे कोई वाक्य इस तरह से निकालदेना या उसमें बढ़ा जो किसीके ध्यानको विशेषरूपसे आकृष्ट न कर सके अथवा
देना जिससे वह अपने वर्तमान रूपमें प्राचीन कृति या अमुक जिससे किसीकी कोई विशेष हानि न होती हो।
व्यक्तिविशेषकी कृति समझी जाय--और न्यसापहारिताइसके सिवाय, बोलने-बुलवाने में मुखसे बोलना-बुल- धरोहरका प्रकारान्तसे अपहरण अर्थात् ऐसा वाक्य-व्यवहार वाना ही नहीं बल्कि लेखनीसे बोलना-बुलवाना अर्थात् जिससे प्रकटरूपमें असत्य न बोलते हुए भी दूसरेकी धरोहरका लिखना-लिखाना भी शामिल है।
पूर्ण अथवा आंशिक रूपमें अपहरण होता हो, ये सब सत्यायहां ऐसे सत्यको भी असत्यमें परिगणित किया है जो णुव्रतके अतीचार है।
-युगवीर
वीरसेवामन्दिर-ट्रस्टके उद्देश्योंका सार वीरसेवामन्दिर और उसके ट्रस्टके जो उद्देश्य एवं ध्येय ट्रस्ट नामाकी आठ कलमों (उपधाराओं) में यत्किचित् विस्तारके साथ दिये गये हैं उनका पंचसूत्री सार इस प्रकार है :
१. जैनपुरातत्वसामग्रीका अच्छा संग्रह, संकलन और प्रकाशन । २. महत्वके प्राचीन जैनग्रन्थोंका उद्धार । ३. लोक-हितानुरूप नव-साहित्यका सृजन, प्रकटीकरण और प्रचार । ४. जनताके आचार-विचारको ऊंचा उठानेका सुदृढ प्रयत्न।
५. जैनसाहित्य, इतिहास और तत्त्वज्ञान-विषयक अनुसंधानादि कार्योका प्रसाधन तथा उनके प्रोत्तेजनार्थ वृत्तियोंका विधान और पुरस्कारादिका आयोजन ।
अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर