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साहित्य - परिचय और समालोचन
१. बट्ण्डागम (धवला टीका और उसके अनुवाद सहित ) मूलकर्ता, आचार्य भूतबलि । टीकाकार, आचार्य वीरसेन । सम्पादक, डा० हीरालाल जैन एम. ए., सहसम्पादक, पं० फूलचन्द जैन सिद्धान्तशास्त्री और पं० बालचन्द्र जैन सिद्धान्तशास्त्री । प्रकाशक, श्रीमन्त सेठ सिताबराय लक्ष्मीचन्द जी जैन साहित्योद्धारक फंड, अमरावती पृष्ठसंख्या, सब निलाकर ४८६ । मूल्य सजिल्द प्रतिका १०) और शास्त्राकारका १२ ) ।
प्रस्तुत ग्रन्थ षट्खण्डागमके चतुर्थ खण्ड 'वेदना' के कृति आदि २४ अनुयोग द्वारोंमें से यह कृति नामका पहला अनुयोग द्वार है, जिसमें प्रथम ही 'णमो जिणाणं' आदि ४४ मंगल सूत्रोंके बाद ४६ वें सूत्रमें कृति के ७ भेद बतलाए गए है--नामकृति, स्थापनाकृति, द्रव्यकृति गणनकृति,, ग्रन्थकृति, करणकुति और भावकृति । ग्रंथ में इन सबके भेद-प्रभेदोंका विवेचन किया गया है। ग्रंथको देखने और अध्ययन करने से ग्रंथगत उनके सब रहस्य समझमें आ जाते हैं । आचार्य वीरसेनने ४४ मंगल सूत्रोंका विवेचन करते हुए ६४ ऋद्धियोंका जो विवेचन किया है वह सब मनन की वस्तु है । उनकी अगाध - प्रज्ञाके दर्शन इस ग्रंथके अध्ययनसे पद पद पर होते हैं । यद्यपि सम्पादक महोदयने इसके सम्पादन- प्रकाशनमे काफी सावधानी वत है और पर्याप्त श्रम भी किया है फिर भी ग्रंथ में दिये हुए शुद्धिपत्रके अतिरिक्त कुछ और भी खटकने योग्य अशुद्धियां रह गई है जिनका प्रदर्शन बा. नेमिचन्द जी वकील और बा. रतनचन्द जी मुख्तार सहारनपुर ने 'जैन सन्देश' में किया है और जिनका सुधार वांछनीय है । ग्रन्थके अन्तमें ५ परिशिष्ट दिये हुए हैं जिनसे उसकी उपयोगिता बढ़ गई है । छपाई, सफाई उत्तम है, ग्रन्थ पठनीय और संग्रहनीय है ।
२. तिलोयपण्णत्ती (भाग २) -मूलकर्ता, आचार्यं यतिवृषभ । सम्पादक डा० हीरालाल जैन एम. ए. डी. लिट्. नागपुर, डा० ए. एन. उपाध्याय एम. ए. डी. लिट्, कोल्हापुर
और पं० बालचन्द्र जैन सिद्धान्तशास्त्री, अमरावती । प्रकाशक, जैन संस्कृतिसंरक्षक संघ, शोलापुर । पृष्ठसंख्या, सब मिलाकर ६१२, बड़ा साइज | मूल्य, सजिल्द प्रति का १६ ) ।
प्रस्तुत ग्रन्थका नाम उसके विषयसे स्पष्ट है । इस ग्रन्थमें ९ अधिकार है जिनमें लोकका सामान्य रूप, नरक लोक, भवनवासी लोक, मनुष्यलोक, तिर्यग्लोक, व्यन्तरलोक, ज्योतिर्लोक, देवलोक, और सिद्धलोकका वर्णन है । ग्रन्थमें आचार्य यतिवृषभने सर्वत्र प्राचीन आगम परम्पराका अनुसरण किया है और उसे लोकविभाग, लोक विनिश्चय, लोकाइनि, परिकर्म और दृष्टिवाद आदि ग्रन्थोंके समुद्धरणोंएवं पाठान्तरोसे पुष्ट किया गया है । ये सभी ग्रन्थ आज दुर्भाग्यसे अप्राप्त है। इनके अन्वेषण होनेकी आवश्यकता है।
ग्रन्थके अन्तमें डा० ए एन उपाध्ये एम. ए. की अंग्रेजीमें भूमिका ( Introduction) है जिसमें तिलोयपण्यत्ती और उसके कर्ता यतिवृषभके समय - सम्बन्ध में पर्याप्त विचार किया गया है। इसके बाद डा० हीरालालजी एम. ए. डी. लिट् की महत्वकी हिन्दी प्रस्तावना है जिसमें ग्रन्थ- परिचय के साथ ग्रन्थकी कुछ विशेषताएं निर्दिष्ट करते हुए कुछ तुलनात्मक विचार दिये है और ग्रन्थकार यतिवृषभके सम्बन्धमें विचार करते हुए उसके रचनाकाल पर भी प्रकाश डालने का यत्न किया गया है । ग्रन्थके विषयका परिचय कराते हुए तिलोयपण्णत्तीकी अन्य ग्रन्थोंसे तुलना भी दी गई है। डाक्टर साहबने हमारा 'आधुनिक विश्व' में जिस विषयकी चर्चाका उपक्रम किया है उस सम्बन्धमें और भी पर्याप्त प्रकाश डाले जाने की आवश्यकता
है। अच्छा होता यदि डा० साहब कुछ विशेष विवेचनके साथ उस पर अपना भी मत व्यक्त करते । सम्पादक महानुभावोंने ग्रन्थको सुगम और पठनीय बनानेके लिये पर्याप्त श्रम किया है। अनुबाद भी मूलानुगामी है, परिष्टिादिसे उसे अलंकृत किया गया है। इसके लिये वे धन्यवाद के पात्र हैं।