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किरण
साहित्य-परिचय और समालोचन
अन्धका प्रकाशन दि जैन संस्कृतिसंरक्षक संघ शोलापुर- धिगमके ९वें अध्यायके ५वें सूत्रके भाष्यको निम्न पंक्तियोंका की ओरसे हुआ है। यह संघ ब. जीवराजजीके त्यागकी ऋणी जान पड़ता है। और उस परसे दोनोंकी एक भावनाका प्रतीक है । आशा है भविष्यमें इससे और भी कर्तृकता भी संभव हो सकती है। प्राचीन अर्वाचीन साहित्यका प्रकाशन होता रहेगा। इस 'पिण्डः शम्या वस्त्रेषणादि पावणादि यच्चान्यत् प्रकारके ग्रन्थरत्नके प्रकाशनके उपलक्षमें संघ धन्यवादाह
-प्रशमरति है। ग्रन्थ संग्रहनीय तथा पठनीय है। प्रत्येक मन्दिरोंमें
"अन्नपानरजोहरणपात्रजीवरादीनां धर्मसापनानामाइसे मंगा लेना चाहिये।
श्रयस्य चोद्गमोत्पादनषणावोषवर्जनमेवणासमितिः।" ३. वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ-सम्पादक प्रो. खुशालचन्द
-भाष्यम् । जैन एम. ए. साहित्याचार्य, बनारस। प्रकाशक, वर्णो हीरक
उक्त कथन तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता द्वारा निर्दिष्ट, नाग्न्यजयन्ती महोत्सव समिति, सागर । पृष्ठ संख्या ६४०, मूल्य
परीषहका विरोधी है। दूसरे मूलसूत्रोंमें इस प्रकारकी सजिल्द प्रतिका १५) रुपया ।
सम्प्रदाय-सम्बन्धिमान्यताओंका कोई उल्लेख भी नहीं है। पूज्य वर्णो जी बुंदेलखण्ड प्रान्तके ही नहीं किन्तु समस्त
अन्यमें कोई तुलनात्मक एवं विषय विवेचनात्मक भारतके अहिंसक योगी है। उन्होंने अपनी साधना द्वारा
खोजपूर्ण प्रस्तावना नहीं है जिसमें उसके कर्ता और ग्रन्थलोकका बड़ा कल्याण किया है। वे आज भी ७९ वर्षकी
के सम्बन्ध विचार किया जा सकता। प्रकाशक संस्थाका वृद्ध अवस्था पैदल यात्रा द्वारा लोककी सजीव सेवा कर
कर्तव्य है कि वह ग्रन्थको प्रस्तावनासे अलंकृत करे। प्रस्तारहे है। प्रस्तुत ग्रन्थ इन्ही पूज्य वर्णीजी की पुनीत सेवाओं
वनासे ग्रन्थको उपयोगिता अधिक बढ़ जाती है। अनुवाद का प्रतिफल है। इसमें जैन धर्म, जैन साहित्य, इतिहास,
मूलानुगामी है। हां, तुलनात्मक स्थलों की टिप्पणियोंको भी विज्ञान, जैन तीर्थ,जैन समाज और पूज्य वर्णीजी के संस्मरों
साथमे दे दिया जाता तो अच्छा होता । ग्रन्थ संग्रहनीय है। के साथ उक्त विषयोंका संकलन किया गया है । प्रायः सभी लेख जैन संस्कृतिके प्रभाव एवं महत्वको स्थापित करने ५. न्यायावतार-मूल लेखक, आचार्य सिद्धसेन वाले है, जिसके अध्ययनसे जैन संस्कृतिका वह विशद रूप दिवाकर। अनुवादक, पं० विजयमूर्ति जैन एम. ए. । प्रायः सामने आ जाता है जो जैनधर्मकी आत्मा है। ग्रन्थ- प्रकाशक, परमश्रुतप्रभावकमंडल जौहरी बाजार, बम्बई । का सम्पादन और विषयोंका चयन अच्छा हुआ है। साथमें पृष्ठ सख्या, १४४ । मूल्य, सजिल्द प्रति का ५) रुपये। बुंदेलखंडादिके चित्रोंसे उसकी उपयोगिता अधिक बढ़ गई प्रस्तुत ग्रन्थ दर्शनशास्त्र का है, जिसके कर्ता श्वेताम्बराहै। ग्रन्थकी छपाई सफाई सुन्दर है। इसके लिये प्रोफेसर चार्य सिद्धसेन दिवाकर नामसे ख्यात है जो बौद्ध विद्वान् साहब धन्यवादके पात्र है।
धर्मकीर्ति और धर्मोतरके उत्तरकालीन जान पड़ते हैं; ४. प्रशमरति प्रकरण-मुलकर्ता, उमास्वाति, क्योकि न्यायावतारमें उनके पद वाक्योंका स्पष्ट प्रभाव, सम्पादक, प्रो. राजकुमार जी साहित्याचार्य, बड़ौत । जान पड़ता है। पात्रकेशरीका भी प्रभाव स्पष्ट है और प्रकाशक, परमश्रुतप्रभावकमंडल जौहरी बाजार, बम्बई। विक्रमकी दूसरी तीसरी शताब्दीके विद्वान् आचार्य समन्तपृष्ठ संख्या, २३२ । मूल्य, सजिल्द प्रति का ६) रुपये। भद्रके रत्नकरण्ड नावाचारका छठा पद्य तो उद्धृत किया
प्रस्तुत ग्रन्यके कर्ता उमास्वाति, तत्वार्थसूत्रके कर्ता ही गया है। इससे सिखसेन दिवाकर धर्मकीर्ति और धर्मोत्तरउमास्वाति या गृवापिच्छाचार्यसे भिन्न है या अभिन्न यह के बादके विद्वान् मालूम होते हैं। अर्थात् विक्रमकी ८वीं एक विवादापत्र विषय है, संभव है जिन्होंने तत्स्वार्थाधिगम शताब्दीके अन्तिम भागके विद्वान ज्ञात होते है। न्यायावतार सूत्र पर भाष्य रचा वे ही इसके कर्ता हों। क्योंकि मूल को सन्मतिकार सिद्धसेनकी कृति बतलाना ठीक नहीं है। तत्त्वार्थसूत्रके अभिप्रायोंसे भिन्न इसम मुनिके लिए क्योंकि समाजके प्रसिद्ध ऐतिहासिक वयोवृद्ध विद्वान् पं. 'वस्त्र-पाचादिका विधान भी पाया जाता है जो तत्वार्या- जगलकिशोर जी मस्ता.ने अनेक समर्थ प्रमाणों के आधार