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किरण १०
गिजोलियाके शिलालेख
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१० विग्रहराज (द्वितीय)
वंशपरिचयके साथ उनके कार्योंका भी सम्मुल्लेख किया गया
है। जिससे लोलाकके पूर्वजोंकी धर्मनिष्ठता सहज ही - १८ दुर्लभराज (द्वितीय ) यह सिंहराजका पुत्र और अपने ज्ञात हो जाती है । श्रेष्ठी लोलाकके पिता सीयक श्रेष्ठी थे,
। बड़े भाई विग्रहराज द्वितीयका उत्तरा- जो प्राग्वाट या पोरवाड वंशके भूषण थे। सीयकके पिताका धिकारी था।
नाम देसख था । सीयकके ५ भाई और भी थे, दुदकनाथक, १६ गोविन्द (3गोविन्दराज)
मोसल, वीगड, देवस्पर्श और राहक । ये छहाँ भ्राता जिननिष्ठ और राज्यमान्य थे । इन्होंने अजयमेरु पर वर्द्ध
मानका मन्दिर बनवाया था। इनमें सीयक सबसे अधिक २. वाकपति नृप २१ वीयराय २२ चामुण्डराय पुण्यात्मा और लोकमान्य था उसने मंडलाकारक एक
विशाल किला और भगवान नेमिनाथका एक सुन्दर मंदिर २३ सिंहट २४ दूसल
बनवाया था। श्रेष्ठी सीयककी दो धर्मपत्नियां थीं, नागश्री (दुर्लभराज तृतीय) और ममता । जिनमें नागश्रीसे तीन पुत्र और ममतासे
दो पुत्र उत्पन्न हुए थे। नागदेव, लोलाक और
उज्ज्वल । महीधर और देवधर । इनमें उज्ज्वलके दो २५ वीसज (धर्मपन्नी राजलदेवी) जो मालवेके राजा पुत्र हुए, दुर्लभ और लक्ष्मण । इनमें लक्ष्मण ब्रह्मचारी । परमारकी पुत्री थी।
था ये दोनों ही धर्मात्मा और यशस्वी थे । इनमें २६ पृथ्वीराज (प्रथम) (धर्मपत्नी रासलदेवी) लोलाक सबसे अधिक पुण्यशाली और गुणज्ञ था, वह
जिनभक परायण श्रावक था। इसकी तीन धर्मपत्नियां २७ अजयदेव (धर्मपत्नी सोमलदेवी)
थी, ललिता, कमला और लक्ष्मी । इनमें ललिता सबसे
अधिक जिनधर्म भक्ता थी । श्रेष्टी लोलाकने ललिताकी २८ अणोराज
प्रेरणा तथा स्वप्नकी स्मृतिसे एक मन्दिरका समुद्धार
किया। पार्श्वनाथका विशाल मन्दिर बनवाया, और अन्य २१ विग्रहराज (चतुर्थ) इनका नाम वीसलदेव था यह बड़ा पांच मन्दिर और भी बनवाए । माथुर संघके विद्वान भ..
प्रतापी था, और विग्रहराज चतुर्थ कहलाता गुणभदसे इस प्रशस्निको बनवाया, जिसे नेगमान्ववकायस्थ थ इसने तोमरवंशियोंसे दिल्ली सं०१२०७ छीतिमके पुत्र केशवने लिखा । इतना ही नहीं, किन्तु उन्नतिया उसके पास पास किसी समय ली थी। शिखर पुराण, नामका एक काव्य-अन्य भी लोलाक श्रेष्ठीने
और उसे अजमेरका सूबा बनाया था। उत्कीर्ण कराया। चूकि यह प्रशस्ति सं० १२२६ की विजोलियाके इस लेख में लिखा है कि- उत्कीर्ण की हुई है । अतः यही समय लोलाक और गुणभद्र 'दिल्ली लेनेसे श्रान्त (थके हुए) और मुनिका है। इसमें जिनचन्द्रसूरिका भी उल्लेख है जो उस प्राशिका ( हांसी) के लाभसे लाभान्वित समयके प्रसिद्ध विद्वान् थे। हुए विग्रहराजने अपने यशको प्रतोली
प्रथम शिलालेख और बलभीमें विश्रान्ति -दी-वहाँ उसे ७) सिद्धम् ॥ॐ नमो वीतरागाय॥ चित्र सहजोदित स्थिर किया।
निरवधि ज्ञानकनिष्ठापितं । नित्योन्मीलितमुल्लसत्परकलं ३. पृथ्वीराज (द्वितीय) ( यह अर्णोराजके ज्येष्ठ पुत्र .
स्यात्कारविस्फारितं (तम्) [1] सुव्यक्त' परमातं जगदेवका पुत्र था।)
. शिवसुखानन्दास्पदं शास्व (श्व)तं । नौमि स्तौमि जपामि ३१ सोमेश्वर (सं. १२२६ में मौजूद था।)
यामि शरणं ज्योतिरात्मो[ स्थि] तं (तम्)॥१॥ इस प्रशस्तिको दूसरो विशेषता यह है कि श्रेष्ठी लोलाकके नास्तं गतः कुग्रहसंग्रहो न । नो तीब तेजा........