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अनेकान्त
[किरण
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कुन्दके प्राकृत गाथा बद्ध सुलोचनाचरितको पद्धडिया यह सब उस धर्मवस्मलताका ही प्रभावह है जो भरतमंत्री छंदमें बनाकर समाप्त कियाह, जिमका रचनाकाल मं.११३२ उक कविवरसे महापुराण जैसे महान ग्रंथका निर्माण करान है। इससे दृबकुण्डका वह स्तूप लेग्ब २० वर्ष बाद लिम्बा में समर्थ हो सके। उत्तरपुराणकी अन्तिम प्रशस्निम, गया है। परन्तु स्तूपमें उल्लिग्वित देवमेनकी गुरु परंपरा- कविने अपना जो कुछ भी मंक्षिप्त परिचय अंकित किया है का भी यदि प्रामाणिक उल्लेख उपलब्ध होजाय तो उसमे स्पष्ट प्रतीत होता है कि कविवर बडे ही निम्मंग उसमे दोनों देवसेनाके व्यक्तित्वका ठीक-ठीक पता चल ओर अलिप्त थे और देहभोगामे सदा उदासीन रहते थे। मकता है।
उत्तरपुराणक उस संक्षिप्त परिचय परसे कविके उच्चतम १. महाकवि पुष्पदन्त-यह अपने समयके प्रसिद्ध जीवन-कणाम उनकी निर्मल भद्रप्रकृति, निम्मंगता और विद्वान कवि थे। इनके पिताका नाम केशव भट्ट और माता- अलिप्तताका वह चित्रपट पाठकक हृदय-पटल पर अंकिन का नाम मुग्धादेवी था। यह कश्यप गोत्रीय ब्राह्मण थे। हुए बिना नहीं रहता। उनकी अकिचनत्तिका इसमे श्रीर इनका शरीर अत्यन्त कश (दबला-पतला) और वर्ग भी अधिक प्रभाव ज्ञात होता है. जब व राष्टकट राजाश्रासांवला था। यह पहल शैव मनानुयायी थे, परन्तु बादको क बहुन बद साम्राज्यक सेनानायक और महामान्य द्वारा किपी दिगम्बर विद्वानके सांनिध्यम जैनधर्मका पालन मम्मानित एवं संगवित होने पर भी अभिमानम पर्वथा करने लगे थे। वे जैनधर्मके बड़े श्रद्धालु और अपनी
अने, निरीह एवं निस्पृह रहे है। देह-भागांमे उनकी काव्य-कलामे भन्योके चित्तको अनुरंजित एवं मुग्ध करने
अलिप्तता ही उनके जीवनकी महत्ताका सबमे बड़ा सबून वाले थे, तथा प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश भाषाके महा
है । यद्यपि वे माधु नहीं थे, परन्तु उनकी वह निरीह पंडित थे । इनका अपभ्रंश भाषा पर असाधारण अधिकार
भावना इस बातकी संद्योतक है कि उनका जीवन एक था, उनकी कृतियों उनके विशिष्ट विद्वान होनेकी म्पष्ट
माधुमे कमभी नहीं था। वे स्पष्टवादी थे और अहंकारकी सुचना करती है । कविवर बड़े ही स्वाभिमानी और उग्र उस भीषणतामे सदा दूर रहते थे; परन्तु म्वाभिमानका प्रकृतिके धारक थे, इस कारण वे 'अभिमानमेरु' कहलाने परित्याग करना उन्ह किसी तरह भी इष्ट नहीं था. थे । अभिमानमेक, अभिमान चिह. काव्यरत्नाकर, कवि- इतना ही नहीं कितु वे अपमानसे मृत्युको अधिक श्रेष्ट कुल तिलक और मरस्वति निलय श्रादि उनकी उपाधियो समझ थी, जिनका उपयोग उन्होंने अपने ग्रन्या में स्वयं किया है। कविकी इस समय तीन कृतियां ममुपलब्ध है-महाइससे उनके व्यक्तित्व और प्रतिष्ठाका सहज ही अनुमान पुराण, नागकुमार चरित्र और यशोधरचरित्र जो मुदिन किया जा सकता है। वे सरस्वतिके विलासी और स्वाभा- है। ये सभी रचनाएँ सुन्दर अर्थ गौरव और भाषा माष्ठविक काव्य-कलाके प्रेमी थे। इनकी काव्य-शक्ति अपूर्व वताको लिए हुए हैं। इनकी रचनाग्राम स्वभाविक माधुर्य और श्राश्चर्यजनक थी । प्रेम उनके जीवनका वास अंग और पदलालित्य होते हुए भी शब्द काठिन्य अधिक पाया था। वे धनादि वैभवये अत्यन्त निस्पृह और जैनधर्मके जाता है, वे भाषा रस और अलंकारकी दिव्य छटाको अटल श्रद्वानी थे। उन्हें दर्शनशास्त्रों और जैनधर्मके लिए हुए हैं। कविका इस पर प्रामाधारण अधिकार था। सिद्धान्तका अच्छा परिज्ञान था । वे राष्ट्रकूट राजाश्रोके ग्रंथका अनुधावन करते हुए कविकी प्रतिभा तथा उनके अन्तिम सम्राट् कृष्ण तृतीयके महामात्य भरतके द्वारा भावुक स्वभावका पद-पद पर अनुभव होता है। सम्मानित थे । इतनाही नहीं किन्तु भरतके ममुदार प्रेम
महापुराण दो खण्डों में विभाजित है, आदिपुराण मय पुनीत व्यवहारमे वे उनके महलोंमें निवास करते रहे, ..
तरह, • और उत्तरपुराण । आदिपुराणमें भगवान ऋषभदेवकाxजं गाहाबन्धं पासि उत्त, सिरिकुन्दकुन्द गणिणा णिरुत्तु ।
चरित्र वर्णित है और उत्तरपुराणम अवशिष्ट तेईम तं एस्थहि पद्धडियहिं करेमि, परि किंपिन गूढउ अत्थु देमि । स इसके लिए पाठक उत्तरपुराणकी प्रशस्तिका वह ते णवि कविणउ संखालहंति, जे प्रत्युदेग्वि वसणहि (वि) पंति अन्तिम अंश देखें । ग्रंथ माणिकचन्द्र ग्रंथमालामें
-सुलोचना चरित्र प्रशस्ति मुद्रित हो गया है।